यूनिसेफ की मदद से बदल रही आंगनबाड़ी केंद्रों की सूरत

लखनऊ/वाराणसी। उत्तर प्रदेश में आंगनबाड़ी केंद्रों की हालत में सुधार लाने के लिए यूनिसेफ ने अपनी तरफ से एक प्रयास शुरू किया है और इसमें लोगों का भी भरपूर सहयोग मिल रहा है। पहले आंगनबाड़ी में बच्चे आने से कतराते थे, लेकिन अब यूनिसेफ की पहल से तस्वीर लगातार बदल रही है।

यूनिसेफ

दरअसल, यूनिसेफ के अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेशन प्रोग्राम (ईसीसीई) के माध्यम से आंगनबाड़ी केंद्र की कार्य संस्कृति और वातावरण में बदलाव आया है। यहां आने वाले बच्चों को दीवारों पर टंगे बैग के नाम जाने बगैर महक से ही सब्जी, फल-फूलों को पहचानना सिखाया जाता है।

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यूनिसेफ के अधिकारी बताते हैं कि आंगनबाड़ी केंद्रों पर बच्चों के सेहत का भी ख्याल रखा जाता है। उन्हें शारीरिक रूप से मजबूत बनाने के लिए खेलकूद भी कराया जाता है। यूनिसेफ का दावा है कि बनारस जिले में ही लगभग 100 से अधिक केंद्रों पर इसका असर साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है।

यूनिसेफ के इसीसीई प्रोग्राम से जुड़े एक अधिकारी ने बताया कि उप्र में आंगनबाड़ी केंद्रों की हालत काफी खराब थी, इसीलिए बच्चे यहां नहीं आते थे। तब इन केंद्रों का कायाकल्प करने की योजना बनाई गई। इसी के तहत डीपीओ और सीडीपीओ को प्रशिक्षण देकर इसका मतलब समझाया गया।

प्रशिक्षण के दौरान बताया गया कि किस तरह से पढ़ाई के तरीकों और आंगनबाड़ी केंद्रों को और आकर्षक बनाकर बच्चों को इन केंद्रों तक आसानी से लाया जा सकता है। डीपीओ और सीडीपीओ ने यूनिसेफ से मिले प्रशिक्षण को सुपरवाइजरों एवं आंगनबाड़ी संचालिकाओं को भी दिया।

इसके बाद आंगनबाड़ी केंद्रों में कुछ बदलाव किए गए। दीवारों पर पेंटिंग बनाई गईं, प्ले कॉर्नर की व्यवस्था की गई, बाल विकास पुष्टाहार की बोरियों से बैग तैयार कराए गए तथा बच्चों के लिए खिलौने तैयार कर अलग तरह से पढ़ाई कराने का माहौल तैयार कराया गया।

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यूनिसेफ के अधिकारी बताते हैं कि महिला एवं बाल विकास विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, उप्र में तीन से छह वर्ष आयु के हर दो बच्चों में एक बच्चे को प्री-स्कूलिंग शिक्षा नहीं मिलती है। 26 फीसदी से ज्यादा बच्चे प्राइवेट अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेश्न सेंटर में चले जाते हैं। सरकारी आंगनबाड़ी केंद्रों में जाने वाले बच्चों की संख्या महज 17.2 फीसदी है।

यूनिसेफ कंसल्टेंट रसिक विनफील्ड के मुताबिक, आंगनबाड़ी केंद्रों पर बदलाव दिखाई दे रहा है और सबसे रोचक यह है कि यह बिना सरकारी प्रयास के हो रहा है। इसमें स्थानीय लोग भी काफी सहयोग करते हैं। इससे यह प्रोग्राम सफल हो पा रहा है।

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