28 जुलाई को होगी हिमालयन कॉन्क्लेव की बैठक, 11 पर्वतीय राज्यों के मुख्यमंत्री होंगे शामिल

हिमालयन कान्क्लेव में 28 जुलाई को ग्यारह पर्वतीय राज्यों के मुख्यमंत्री अपने राज्यों के सरोकार और चुनौतियों पर मंथन करेंगे। अमर उजाला इस कान्क्लेव से पहले ‘एजेंडा पहाड़’ नाम से हिमालयी राज्यों की सात बड़ी चुनौतियों पर खबरों की सीरीज प्रकाशित कर रहा है। पहली चुनौती है फसलों को वन्य जीवों से बचाना। जंगली सुअरों, हाथियों, नील गाय और बंदरों की समस्या से बड़े पैमाने पर किसान खेतीबाड़ी छोड़ने के मजबूर हो रहा है। हिमालय कॉन्क्लेव में राज्यों के सामने इस हिमालय सरीखी समस्या से पार पाने की चुनौती होगी…

हिमालयन कॉन्क्लेव

पर्यावरण की सुरक्षा से इतर मसूरी में 28 जुलाई को ग्यारह राज्यों के मुख्यमंत्रियों को अपने-अपने राज्यों की फसलों को वन्य जीवों से बचाने के लिए भी जूझना होगा। ये एक ऐसी समस्या है। जिससे सिक्किम से लेकर उत्तराखंड तक जूझ रहा है। ऐसे में जहां सिक्किम का जैविक राज्य होने का स्टेटस खतरे में हैं। वहीं उत्तराखंड में करीब 30 प्रतिशत फसलें खेतों में ही बर्बाद हो रही हैं। प्रदेश के कृषि मंत्री को कहना पड़ रहा है कि ऐसी खेती करें जिसकी ओर वन्य जीव आए हीं नहीं। लोग भी अपनी तरफ से कोशिश कर रहे हैं पर स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।

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प्रदेश में वन्य जीव विहार, अभ्यारण्य, नेशनल पार्क आदि के किनारे के गांवों में वन्य जीवों से फसलों के नष्ट करने की समस्या अधिक है। हर साल जंगल से निकल कर आबादी की ओर आने वाले वन्य जीवों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। पर्वतीय जिलों में बंदरों और जंगली सुअरों का प्रकोप अधिक है। मैदानी क्षेत्रों में हाथियों और नील गायों ने फसलों पर धावा बोला हुआ है। हाल ये है कि प्रदेश में करीब 30 प्रतिशत फसल जंगली जानवरों की भेंट चढ़ रही है। नाबार्ड के एक अध्ययन के मुताबिक उत्तराखंड में पोस्ट हार्वेस्ट हानि करीब 40 प्रतिशत है। साफ है कि फसल खेत से लेकर मंडियों तक पहुंचने में नुकसान उठा रही है और इसी सीधी चोट किसान पर है।

खुद वन विभाग यह मान रहा है कि मानव वन्यजीव संघर्ष की एक बड़ी वजह यह क्रॉप रेडिंग भी बन रही है। खासकर जंगल के किनारे के गांवों में यह समस्या अधिक है। तेंदुओं का आबादी की ओर रुख करने का नतीजा है कि गांव के लोग दूर दराज के खेतों को बंजर छोड़ रहे हैं। घर के पास की क्यारी को बंदर पनपने नहीं दे रहे हैं। गेहूं और धान के खेतों को नील गाय उजाड़ बना रहीं हैं। यह पटकथा सिर्फ उत्तराखंड में नहीं लिखी जा रही है।

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बल्कि सभी हिमालयी राज्य इस समस्या से पीड़ित हैं। सिक्किम जैसे राज्य के 25 प्रतिशत किसान जैविक सब्जी उत्पादन छोड़कर चाय की खेती पर उतर आए। उत्तराखंड भी प्रदेश को जैविक प्रदेश बनाना चाह रहा है और इसकी राह में इसी तरह की समस्या आ रही है। खुद कृषि मंत्रालय किसानोें को जड़ी बूटी उत्पादन की सलाह दे रहा है। परंपरागत खेती चौपट होती जा रही है। पलायन आयोग भी मान रहा है कि खेती का नुकसान बढ़ जाने से लोग खेती छोड़ रहे हैं।

फसलों को वन्य जीवों से बचाने के लिए हम प्रदेश में किसानों को सगंध, जड़ी बूटी आदि की खेती के लिए भी प्रेरित कर रहे हैैं। किसानों को इस बात के लिए भी मनाया जा रहा है कि वे फसल को बचाने में अपने धार्मिक दृष्टिकोण को किनारे रखें। जंगली सुअरों और नील गायों को मारने की अनुमति दी गई है। जुलाई में ही दिल्ली में कृषि मंत्रियों के सम्मेलन में मैंने खेती को वन्य जीवों से बचाने का मुद्दा उठाया था। अब हिमालयन कॉन्क्लेव में भी हम इस मुद्दे को पुरजोर तरीके से उठाने की कोशिश में हैं।

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