जानिए टाटा ग्रुप ने लोकसभा चुनाव के लिए दिया करोड़ो का चंदा…
नई दिल्ली : टाटा समूह ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए 500 से 600 करोड़ रुपये का चंदा दिया है. यही नहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव से अब तक यानी 2019 के चुनाव तक टाटा ग्रुप का चुनावी चंदा 20 गुना ज्यादा बढ़ गया है।
वहीं टाटा समूह ने राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाया है. समूह ने सबसे ज्यादा चंदा भारतीय जनता पार्टी (BJP) को दिया है।
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बता दें की बिजनेस स्टैंडर्ड के मुताबिक 2019 के चुनाव में टाटा ग्रुप ने 500 से 600 करोड़ रुपए का चंदा दिया है. साल 2014 में उसने सभी दलों को सिर्फ 25.11 करोड़ रुपये ही बतौर चंदा दिए थे। जहां इस साल दिए गए 500-600 करोड़ रुपये में से अकेले बीजेपी को 300 से 350 करोड़ रुपये का चंदा दिया गया है, जबकि कांग्रेस को 50 करोड़ रुपए का हैं।
बाकी करीब 150 से 200 करोड़ रुपये की रकम में से तृणमूल कांग्रेस, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, सीपीआईएम और एनसीपी जैसी पार्टियों को चंदा दिया गया है। लेकिन ट्रस्ट का कहना है कि वह सदन में सदस्यों की संख्या के हिसाब से चंदा देती है।
टाटा समूह की सारी कंपनियां अपना पैसा प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट में जमा करते हैं, फिर ये ट्रस्ट राजनीतिक दलों को चंदा देता है. साल 2014 में सॉफ्टवेयर कंपनी टीसीएस यानी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज ने 1.48 करोड़ रुपये इस ट्रस्ट में दिए थे।
जहां इस बार टीसीएस ने 220 करोड़ रुपये का योगदान किया है. इसके अलावा टाटा ग्रुप की दूसरी टाटा संस, टाटा मोटर्स, टाटा पॉवर और टाटा ग्लोबल बेवरेज लिमिटेड जैसी कंपनियों ने भी ग्रुप के चंदा ट्रस्ट यानी प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट में पैसा जमा किया है।
टाटा के ट्रस्ट द्वारा अपने राजनीतिक चंदे का आधा हिस्सा चुनावों के पहले और आधा हिस्सा चुनावों के बाद देने का ट्रेंड रहा है। लेकिन वहीं बाद में ट्रस्ट का नियम बदल दिया गया और पूरा चंदा अब चुनाव के पहले दिया जाता है। इससे सत्तारूढ़ दल को फायदे की गुंजाइश रहती है।
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के ऑडिट रिपोर्ट में घोषित चंदे की जानकारी आधार पर एक विश्लेषण किया है। इससे पता चलता है कि साल 2004-05 से 2017-18 के दौरान राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का 66 फीसदी हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आता है।
राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता और जवाबदेही के नाम पर केंद्र सरकार राज्यसभा को दरकिनार करते हुए यह संशोधन वित्त विधेयक के रूप में लेकर आई थी।लेकिन सच तो यह है कि इलेक्टोरल बॉन्ड से पारदर्शिता बढ़ने के बजाए और कम हुई है।