
लखनऊ | शौर्यगाथा की तीसरी कड़ी में हम आप को आज उस क्रांतिकारी के बारे में बताने जा रहे हैं जो भारत की आज़ादी के लिए मात्र 20 वर्ष की आयु में फांसी के फंदे पर झूल गया। उस सुरवीर का नाम कनाईलाल दत्त हैं। आइए एक बार फिर याद करते हैं इस वीर क्रांतिकारी की शहादत को जो कहीं गुमनामी के पन्नों में खो गया।
शौर्यगाथा 3 : कनाईलाल दत्त का जन्म 30 अगस्त, 1888 में हुआ
कनाईलाल दत्त का जन्म 30 अगस्त, 1888 ई. को ब्रिटिश कालीन बंगाल के हुगली ज़िले में चंद्रनगर में हुआ था।
उनके पिता चुन्नीलाल दत्त ब्रिटिश भारत सरकार की सेवा में मुंबई में नियुक्त थे।
पांच वर्ष की उम्र में कनाईलाल मुंबई आ गए और वहीं उनकी आरम्भिक शिक्षा हुई।
बाद में वापस चंद्रनगर जाकर उन्होंने हुगली कॉलेज से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की।
लेकिन उनकी राजनीतिक गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनकी डिग्री रोक ली।
1905 ई. के ‘बंगाल विभाजन’ विरोधी आन्दोलन में कनाईलाल ने आगे बढ़कर भाग लिया तथा वे इस आन्दोलन के नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के भी सम्पर्क में आये।
बी.ए. की परीक्षा समाप्त होते ही कनाईलाल कोलकाता चले गए और प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बारीन्द्र कुमार घोष के दल में सम्मिलित हो गए और यहाँ वे उसी मकान में रहते थे, जहाँ क्रान्तिकारियों के लिए अस्त्र-शस्त्र और बम आदि रखे जाते थे।
शौर्यगाथा 3 : मुजफ्फरपुर में किंग्सफ़ोर्ड पर आक्रमण किया
अप्रैल, 1908 ई. में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर में किंग्सफ़ोर्ड पर आक्रमण किया।
इसी सिलसिले में 2 मई, 1908 को कनाईलाल दत्त, अरविन्द घोष, बारीन्द्र कुमार आदि गिरफ्तार कर लिये गए।
इस मुकदमे में नरेन गोस्वामी नाम का एक अभियुक्त सरकारी मुखबिर बन गया।
योज़ना के तहत क्रान्तिकारियों ने इस मुखबिर से बदला लेने के लिए मुलाकात के समय चुपचाप बाहर से रिवाल्वर मंगाए।
कनाईलाल दत्त और उनके एक साथी सत्येन बोस ने नरेन गोस्वामी को जेल के अंदर ही अपनी गोलियों का निशाना बनाने का निश्चय किया।
कनाईलाल दत्त और सत्येन बोस ने नरेन गोस्वामी को जेल के अंदर ही अपनी गोलियों का निशाना बनाने का निश्चय किया।
पहले सत्येन बीमार बनकर जेल के अस्पताल में भर्ती हुए, फिर कनाईलाल भी बीमार पड़ गये।
सत्येन ने मुखबिर नरेन गोस्वामी के पास संदेश भेजा कि मैं जेल के जीवन से ऊब गया हूँ और तुम्हारी ही तरह सरकारी गवाह बनना चाहता हँ।
मेरा एक और साथी हो गया, इस प्रसन्नता से वह सत्येन से मिलने जेल के अस्पताल जा पहुँचा।
उसे देखते ही पहले सत्येन ने और फिर कनाईलाल दत्त ने उसे अपनी गोलियों से वहीं ढेर कर दिया।
दोनों पकड़ लिये गए और दोनों को मृत्युदंड मिला।
कनाईलाल के फैसले में लिखा गया कि इसे अपील करने की इजाजत नहीं होगी।
10 नवम्बर, 1908 को कनाईलाल कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में फांसी के फंदे पर लटकर शहीद हो गए।