
नई दिल्ली। आपने हमेशा हिंदुओं को ही बसंत पंचमी का त्योहार मनाते हुए देखा होगा। लेकिन क्या आपको पता है कि बसंत पंचमी के त्यौहार को सूफी लोग भी मनाते हैं क्योंकि इसका इस्लाम से एक गहरा नाता है। तो चलिए जानतें हैं कि आखिर सूफी का इस त्यौहार से इतना गहरा नाता क्यों है?
जानिए इसके पिछे की कहानी-
हजरत निजामुद्दीन औलिया अपने भांजे से बहुत स्नेह करते थे। पर उसकी असमय मौत से वो बहुत उदास रहने लगे। अमीर खुसरो उनको खुश करना चाहते थे। इस बीच बसंत ऋतु आई। कहते हैं कि खुसरो ने सरसों और गेंदे के पीले फूलों से एक गुलदस्ता बनाया और निजामुद्दीन औलिया के सामने पहुंचे। पीला साफा बांध और पीले कपड़े पहन खूब नाचे गाए। उनकी मस्ती से हजरत निजामुद्दीन की हंसी लौट आई।
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तब से जब तक खुसरो जीवन भर बसंत पंचमी का त्योहार मनाते रहे। खुसरो के बाद भी ये परंपरा चलती रही। हर साल दरगाह पर खुसरो की रचनाओं को गाया जाता है। सरसों और गेंदे के फूलों से दरगाह सजाई जाती है। वैसे हिंदू पंचांग से अलग सूफी रवायत में बसंत का त्योहार इस्लामिक कैलेंडर के पांचवें महीने, जूमादा अल अव्वल के तीसरे दिन मनाया जाता है।
निजामुद्दीन की दरगाह से शुरू हुई बसंत की ये परंपरा दूसरी दरगाहों में भी फैल गई। जानकार बताते हैं कि बाकी जगह ऐसा करने की कोई बाध्यता नहीं है मगर ज्यादातर दरगाहों में बसंत पर कव्वाली और जलसे का आयोजन होता है। इस्लाम से जुड़े लोगों की इस पर अलग-अलग राय होती है। इसके समर्थक कहते हैं कि बसंत मौसम और किसानों से जुड़ा त्योहार है इसका ज़िक्र अगर कुरान और हदीस में नहीं है तो हिंदू धर्म ग्रंथों में भी नहीं है। इसलिए खुश होना, एक खास रंग के कपड़े पहनना गलत नहीं हैं।
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इसी दिन को याद कर आज भी उनकी दरगाह पर हर साल बसंत पंचमी मनाई जाती है। बसंत उत्सव की ऋतु है। इसको लेकर तमाम कव्वालियां हैं, राग हैं, फिल्मी गाने हैं।
साभार: फर्स्ट पोस्ट





