कार्बन उर्त्सजन सीमित करने के लिए 200 देशों ने लिया सामूहिक संकल्प
बॉन। दुनिया के तकरीबन 200 देशों ने शनिवार को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर नियंत्रण लाने की वर्तमान योजनाओं पर अगले साल दोबारा समीक्षा शुरू करने का संकल्प लिया। यह संकल्प पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते से अमेरिका के अलग होने के फैसले के साये में लिया गया है।
सम्मेलन में भारत ने फिर जलवायु संबंधी कार्ययोजना के लिए विकसित देशों की ओर से जलवायु अनुकूलन व उत्सर्जन में कमी के लिए वित्तीय सहायता व प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की बात दोहराई।
जलवायु संबंधी खतरों से सुरक्षा के लिए आगे बढ़कर जर्मनी ने 2020 तक 40 करोड़ से ज्यादा गरीब व असुरक्षित लोगों की सुरक्षा के प्रावधानों को सहायता प्रदान करने के लिए 125 अरब डॉलर अतिरिक्त देने का वादा किया। यह राशि जर्मनी की ओर से जलवायु अनुकूल निधि में फिर पांच करोड़ यूरो का योगदान देने के अतिरिक्त है।
बॉन में संपन्न हुए 23वें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में सबने एक संदेश दिया कि पेरिस समझौते के उद्देश्यों की ओर बढ़ने और आखिरकार स्थायी विकास को लेकर 2030 के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए काम करने की सख्त जरूरत है। यह बात जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा संधि यानी यूएनएफसीसीसी सचिवालय की ओर से शनिवार को कही गई।
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दो सप्ताह चली वार्ता में 2015 के पेरिस समझौते की बहाली के मद्देनजर कई आवश्यक फैसले लेने थे, जिनमें जीवाश्म ईंधनों के दहन से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों की कटौती करके वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखने संबंधी दिशानिर्देशों को लागू करने की दिशा में सार्थक प्रगति भी शामिल था।
पर्यावरण से जुड़े समूहों ने बताया कि सम्मेलन में उत्सर्जन में कटौती व जलवायु अनुकूलन के लिए विकासशील देशों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता जैसे कई प्रमुख मुद्दों पर बातचीत नहीं हो पाई।
यूएनएफसीसीसी प्रवक्ता ने बताया कि इस अवसर पर की गई प्रमुख घोषणाओं में सबसे गरीब व असुरक्षित लोगों, इस साल की विकट मौसमी दशाओं के कारण उनकी दुर्दशा की संभावनाओं को प्रकाश में लाया गया, की मदद के लिए निधि की घोषणा है।
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भारत समेत विकासशील देशों के लिए 2020 के पहले की जलवायु कार्ययोजना को लेकर एक बड़ी उपलब्धि की बात यह थी कि दुनिया के विकसित देश बाद के दो वर्षो में भी इस विषय पर बातचीत को राजी थे।
भारत पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री हर्षवर्धन ने कहा कि विकासशील देशों को वित्तीय मदद, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और क्षमता निर्माण सहायता प्रदान करने के प्रावधान संकटपूर्ण हैं।