बच्चे पार्क में न खेलें तो कहां खेलें?

हमारी कालोनी में दो पार्क बने हैं। दोनों में फूल-पौधे लगाये गये हैं। नगर निगम की तरफ से तो माली की व्यवस्था नहीं की गयी है लेकिन कालोनी के लोगों ने माली भी तैनात कर रखा है। पार्क में पानी भी डालने की नियमित व्यवस्था है। इस पार्क में बच्चे क्रिकेट खेलने लगे। कालोनी के लोगों ने मना किया। बच्चों ने अपने स्तर से विरोध भी जताया लेकिन बड़ों के आगे उनकी नहीं चली। इसके बाद वही बच्चे फुटबाल ले आये। सभी बच्चों ने मिलकर अपने पॉकेट खर्च से फुटबाल खरीदा था। वे सोच रहे थे कि क्रिकेट नहीं खेलने दिया गया तो फुटबाल तो खेल ही सकते हैं। कालोनी के बड़ों ने फुटबाल पर भी रोक लगा दी। कहने लगे कि इससे छोटे-छोटे पौधे टूट जाते हैं। माली ने मिट्टी की क्यारियां बनायी हैं ताकि उनमें ठीक से पानी भरा रह सके। आप लोगों के फुटबाल खेलने से वे क्यारियां टूट जाती हैं, सिंचाई के लिए डाला गया पानी बह जाता है। बच्चे परेशान हो गये। उन्होंने कहा ‘अंकल यह तो बताइए कि हम लोग कहां खेलें? घर पर बैठकर तो ‘बोर’ हो जाएंगे। छुट्टियों के समय तो समय काटे नहीं कटता है। शाम को कुछ देर और सबेरे खेल लेते हैं तो व्यायाम के साथ मनोरंजन भी हो जाता है।kh

ये बच्चे सभी किशोर वय के थे। इनसे यह भी नही कहा जा सकता कि जाओ स्टेडियम में खेलो। दूर-दूर कुछ मैदान पड़े हैं जहां खेला जा सकता है लेकिन वहां पर पहले से ही अन्य बच्चों ने अधिकार जमा रखा है। खेल के दौरान लड़ाई-झगड़े की पूरी आशंका बनी रहती है। इसी आशंका के चलते इन बच्चों के अभिभावक भी नहीं चाहते कि उनके बच्चे दूर-दराज जाकर खेलें। नजदीक के पार्क फूल-पौधों से भरे हैं। वहां के निवासियों का तर्क भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। किशोर वय के बच्चे रबर वाली गेंद से तो क्रिकेट खेलेंगे नहीं। उनको क्रिकेट बॉल ही चाहिए और बल्ला भी बिल्कुल विराट कोहली वाला। आजकल विराट कोहली ही बच्चों के हीरो हैं कभी अजित वाडेकर, सुनील गवास्कर और सचिन तेंदुलकर क्रिकेट प्रेमियों के हीरो हुआ करते थे। बहरहाल, पार्क में जो बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे, उनके शाट्स कई लोगों के घरों की खिड़कियों के शीशे तोड़ चुके थे। चार पहिया वाहनों की संख्या भी इतनी ज्यादा हो गयी है कि उनको खड़ा करने की घर में जगह नहीं। घर के सामने ही गाड़ी खड़ी है और सामने पार्क में क्रिकेट हो रहा है तो गाड़ी का शीशा कब तक बकरे की मां की तरह खैर मनाएगा। एक न एक दिन तो किसी बल्लेबाज का फोरर या सिक्सर गाड़ी के शीशे को चकनाचूर ही कर देगा। बच्चों से इसकी भरपायी की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए बेहतर होगा कि उनसे यही कहा जाए बेटा, यहां क्रिकेट न खेलो।
फुटबाल के साथ थोड़ी ढिलाई दी जा सकती है लेकिन पार्क में कालोनी की महिलाएं अपने छोटे-छोेटे बच्चों को खेलने के लिए लाती हैं। ये बच्चे एक जगह तो बैठ नहीं सकते, पार्क में दौड़ लगाएंगे और फुटबाल पर कोई भी किक मारेगा तो वह बच्चे को पहचान कर अपनी दिशा तो बदल नहीं देगी। फुटबाल से भी बच्चों को चोट लग सकती है लेकिन समस्या यही कि बच्चे खेलने जाएं तो कहां? और क्या खेलें।
यह समस्या किसी एक कालोनी की नहीं है बल्कि देश भर में शहरों की घनी बस्ती की है। शहर ही नहीं अब गांवों में भी यह समस्या पैदा हो गयी है क्योंकि ग्राम समाज की खाली जमीन, खलिहानों की भूमि और गलियारे तक अतिक्रमण अथवा ग्राम प्रधान के चहेतों को पट्टे पर दे दिये गये हैं। खेत खाली हों तो वहां भी क्रिकेट-फुटबाल जैसे खेल नहीं खेले जा सकते। सरकारी प्राइमरी स्कूलों के पास खेल के मैदान ही नहीं बचे हैं। कुछ गांवों में और कुछ स्कूलों में ऐसी व्यवस्था हो तो उन्हें अपवाद समझना चाहिए। सामान्य रूप से यही हालात हैं। इसका कोई न कोई समाधान तलाशना होगा। सरकार की घोषणाओं पर ध्यान देना ही व्यर्थ है। गांव-गांव में खेल के मैदान, स्टेडियम, शहरों में खेल के मैदान और स्टेडियम कितनों को राहत दे पायेंगे।
इसका एक समाधान अपने देश के परम्परागत खेलों की तरफ लौटने से भी मिल सकता है। हमारा यहां यह तात्पर्य बिल्कुल नहीं है कि क्रिकेट और फुटबाल जैसे आउटडोर गेम नहीं खेलने चाहिए बल्कि जहां सुविधा हो या सुविधा दी जा सकती है, वहां इन खेलों को खेलने में किसी को आपत्ति भी नहीं होगी लेकिन हमने जिस कालोनी का जिक्र किया और इस तरह की कई कालोनियां मौजूद हैं, वहां पर परम्परागत खेलों को प्रोत्साहन देने से समस्या का पूरी तरह समाधान हो जाएगा। हमारे देश में कबड्डी, खो-खो जैसे खेल भी सामूहिक रूप से खेले जाते हैं। इनका प्रचलन अब कम हो गया है। शहर के विकसित पार्कों में भी इन खेलो को आसानी से खेला जा सकता है। इससे कालोनीवासी भी एतराज नहीं करेंगे। हम जिस कालोनी का जिक्र कर रहे थे, वहां भी बच्चों को यह सुझाव दिया गया। कुछ बच्चों ने तो कहा कि ‘अंकल, हम बैडमिंटन खेल सकते हैं? बैडमिंटन खेलने में भी किसी को एतराज नहीं था। कुछ बच्चे पार्क के एक किनारे बैडमिंटन खेलने लगे, वहीं कुछ बच्चों को खो-खो पसंद आया। पार्क में खो-खो शुरू हुआ तो बच्चों की भीड़ बढ़ती चली गयी और एक दिन तो चमत्कार दिखा जब पार्क में अपने बच्चों के साथ आने वाली महिलाएं भी खो-खो खेलती दिखाई पड़ीं। भरपूर मनोरंजन के साथ उन्होंने व्यायाम भी किया। धीरे-धीरे इस प्रकार खेलने वाली महिलाओं की संख्या भी बढ़ती गयी।
अब उस पार्क में बच्चे घास के मैदान में कुश्ती खेलते हैं, खो-खो खेलते हैं और बैडमिंटन भी। किसी को कोई परेशानी नहीं है। पार्क में नगर निगम की तरफ से हाईमास्ट (ऊंची लाइट) लगवा दी गयी है जिससे पूरे पार्क में उजाला रहता है। शहर की जिंदगी में जहा लोग पास-पड़ोस के घर में कौन रहता है, यह भी नही जानते, वहीं इस पार्क में महिलाएं एक-दूसरे से हंसकर बातें करती हैं, खेलती हैं और एक-दूसरे का दुख-दर्द भी सुनती हैं। हमारे पारम्परिक खेलों में सचमुच का जादू है। दुर्भाग्य से लोग इन खेलों को भूलते जा रहे हैं। कुश्ती जैसे खेल तो ओलंपिक प्रतियोगिता में भी शामिल हैं। हालांकि इनके लिए विधिवत अखाड़े बनाये जाते है और गांवों में खेतों की जुताई के समय लोग कुश्ती खेल सकते हैं जरूरत है, इन खेलों को प्रोत्साहन देने की। आजकल देखा यही गया है कि अभिभावक अपने बच्चे को क्रिकेट का वैट बहुत जल्दी थमा देते हैं लेकिन पारम्परिक कबड्डी, खो-खो जैसे खेलों के प्रति उनमें अभिरुचि नहीं पैदा करते जबकि समय और परिस्थितियों के अनुसार पारम्परिक खेल ज्यादा मुफीद हैं। (हिफी)

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