भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लिए चीफ जस्टिस बनेंगे दीपक मिश्र!

सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीशनई दिल्ली। देश के वर्तमान प्रधान न्यायाधीश जस्टिस जे एस खेहर का कार्यकाल आगामी 27 अगस्त को पूरा हो रहा है और उनके बाद इस पद पर सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र को मनोनीत किया जाएगा। जस्टिस दीपक मिश्र के नाम का प्रस्ताव वर्तमान प्रधान न्यायाधीश जस्टिस खेहर ने ही दिया था, जिस पर केंद्र सरकार और राष्ट्रपति ने अपनी मुहर लगा दी है।

गौरतलब है कि देश का प्रधान न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट में संविधान से जुड़े तमाम जटिल मुद्दों, क़ानून के नियमों को प्रभावित करने वाले सभी मामलों के साथ-साथ देश के लगभग 1.3 अरब नागरिकों के जीवन और उनकी स्वतंत्रता से जुड़े प्रत्येक मामले में निर्णय देने के साथ ही सभी तरह के आपराधिक और सामान्य मामलों की अपील में भी फैसला देते हैं।

लेकिन जब किसी व्यक्ति पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हों तो क्या उसे देश के प्रधान न्यायाधीश के पद पर आसीन किया जा सकता है? वह भी केवल इस वजह से कि वह वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश हैं! कुछ ऐसा ही मामला देश के होने वाले प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र के साथ भी जुड़ा हुआ है।

भूमि आवंटन मामला

इस तथ्य को अगर गहराई से जानेंगे तो आपको पता लगेगा कि जस्टिस मिश्रा से कितनी गंभीर चूक हुई है और यह किस हद तक चौंकाती है। उन्होंने 1979 में (जब वे एक वक़ील थे) ओडिशा सरकार से दो एकड़ ज़मीन की लीज (पट्टा) पाने का आवेदन किया था। उन्होंने आवंटन के समय सशर्त यह भी कहा था कि ‘मैं ब्राह्मण जाति से हूं और अपने पूरे परिवार सहित मेरी ज़मीनी संपत्ति शून्य है।’

लेकिन 11 फरवरी 1985 को तत्कालीन ओडिशा सरकार के लैंड सेटलमेंट एक्ट 1962 के तहत मिश्रा के ख़िलाफ़ हुई कार्यवाही को देखते हुए कटक के अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट के एक आदेश के बाद इस लीज को रद्द कर दिया गया था।

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लेकिन जस्टिस मिश्रा जो कि इस मामले में विरोधी पक्षकार थे, वे भूमिहीन व्यक्ति नहीं थे और न ही वे सरकार द्वारा दी जाने वाली कृषि उद्देश्य ज़मीन के सेटलमेंट के लिए भी उपयुक्त थे। इस आधार पर ही उस लीज को खारिज कर दिया गया था। ऐसे में पट्टेदार ने गलतबयानी और धोखाधड़ी से लीज हासिल करने की कोशिश की है।

इस मामले में सीबीआई ने 30 मई 2013 को फाइनल रिपोर्ट साझा करते हुए बताया था कि-

‘श्री दीपक मिश्रा पुत्र रघुनाथ मिश्रा, गांव तुलसीपुर, पोस्ट लालबाग, कटक रहवासी बानपुर, पुरी को 30.11.1979 को तत्कालीन तहसीलदार द्वारा प्लाट नंबर 34, खाता नंबर 330, मौज़ा बिद्याधरपुर में दो एकड़ ज़मीन अधिकृत की गई थी.’

‘तहसीलदार द्वारा दिया गया आवंटन आदेश 11.02.1985 को कटक के अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए एक आदेश के बाद रद्द कर दिया गया था. लेकिन इसका रिकॉर्ड 06.01.2012 को कटक तहसीलदार के 6 जनवरी 2012 को ही दिए गए एक आदेश के बाद सुधारा गया है.’

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इस जांच रिपोर्ट के बाद हाईकोर्ट की कार्यवाही की कोई स्पष्ट जानकारी मौजूद नहीं है। वहीं किसी भी हलफनामें को कानूनी सबूत के तौर पर देखा जाता है और यदि उसमें कोई गलत बयानी करता है तो यह भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 199 और 200 के तहत गंभीर अपराध है। जिसके लिए 7 साल की जेल के साथ जुर्माना भी वसूला जाता है। ऐसे में जस्टिस मिश्रा द्वारा इस तरह का झूठा हलफ़नामा दाखिल करना एक बेहद गंभीर मामला है।

अन्य मामले

यही नहीं दूसरा मामला अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के साथ जुड़ा हुआ है। जस्टिस मिश्रा का नाम अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कालिखो पुल के सुसाइड नोट में भी पाया गया था लेकिन इस मामले की अभी तक कोई जांच शुरू नहीं हुई है। इसके अलावा हाल ही में तीन हाईकोर्ट के जजों द्वारा ओडिशा हाईकोर्ट के दो आसीन न्यायाधीशों के ख़िलाफ़ आरोपों में भी जस्टिस दीपक मिश्रा का नाम सामने आने की खबर आई थी। इन सभी मामलों के बावजूद भी दीपक मिश्र को क्या केवल इसीलिए देश के सर्वोच्च पद पर आसीन किया जा रहा है कि वह वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायाधीश हैं।

साभार- दि वायर हिंदी

 

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