अगस्त क्रांति दिवस : भारत की आजादी के गौरवपूर्ण इतिहास का पहला दिन

अगस्त क्रांति दिवसआज हम भले ही आजाद भारत में सांस ले रहे हैं, लेकिन इसके लिए देश के कई सपूतों ने अपना जीवन न्यौछावर किया है। अंग्रेजो के शासन काल में देश में न ही किसी को चैन से जीने की आजादी थी और न ही मरने की। उस भारत में रहने वाले हर हिन्दुस्तानी की सांसो पर सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्य का कब्जा हुआ करता था। इस शासन के खिलाफ आवाजे तो बहुत सी उठीं लेकन, किसी में इतना बल न था कि वे इस शासन की जड़ों को हिन्दुस्तान की ज़मी से उखाड़ फेंके।

आतंक और गुलामी में फंसे छोटे-बड़े तबके को जब यह अहसास हुआ कि चुप बैठने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। तब सभी नागरिकों ने अपने रुतबे, धर्म विवाद और ऊंच-नीच के मामलों को ताक पर रख दिया और आजादी के लिए अपनी आवाज बुलंद करने के लिए एकजुट हुए।

इस काम में राष्ट्रपिता कहलाने वाले महात्मा गांधी का अहम योगदान रहा। उन्होंने न केवल देश के हर तबके को समायोजित किया बल्कि सभी को एक साथ संगठित होकर आगे कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित भी किया।

बता दें 4 जुलाई 1942 को राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में पार्टी ने अंग्रेजों से भारत छोड़ने की बात कही। साथ ही यह भी कहा गया कि यदि ब्रिटिश हुकूमत इस मामले में राजी नहीं होती है तो उनके खिलाफ पार्टी आन्दोलन शुरू करेगी।

कांग्रेस के इस प्रस्ताव को ब्रिटिश हुकूमत ने नज़र अंदाज कर दिया। इसके बाद कांग्रेस ने अन्य सभी दलों से इस आन्दोलन में साथ देने का आह्वान किया। लेकिन कई दलों को पार्टी साथ लाने में सफल नहीं हो पाई।

इसके बाद कांग्रेस ने गांधी जी से इस विषय पर अपनी बात रखी और उनके 9 अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू किया।

आजादी के लिए लोगों को इस आन्दोलन में जुड़ने का आह्वान किया गया।  इस आन्दोलन का व्यापक असर ब्रिटिश शासन पर हुआ। गांधी जी के दृढ आत्मविश्वास और लोगों की आजादी की प्रबल इच्छा को देख वे डरने लगे।

मुंबई के पार्क में शुरू हुए इस आन्दोलन का खौफ ब्रिटिश साम्राज्य पर देखा गया। इस दिन को ही अगस्त क्रान्ति(9 अगस्त 1942) के नाम से जाना जाता है।

कई बड़े स्वाधीनता संग्राम सेनानी डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सरदार वल्लभभाई पटेल, जयप्रकाश नारायण आदि ने इस आंदोलन में समर्थन किया।

मगर इस आंदोलन को हर दल ने समर्थन दिया हो ऐसा नहीं था। मुस्लिम लीग, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी व हिंदू महासभा ने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया।

आंदोलन लोकप्रिय होते ही गांधी जी को पुणे के आगा खान पैलेस में बंद कर दिया गया। सरकारी इमारतों भवनों में आगजनी की घटनाऐं हुईं।

कई जगह बम विस्फोट हुए कई स्थानों पर संचार और परिवहन सेवाओं को ठप कर दिया गया। मगर इस तरह की हिंसा पर गांधी जी ने दुख जताया।

जेल में गांधी जी ने 21 दिन भूखहड़ताल रखी। 1944 में गांधीजी का स्वास्थ्य खराब हो गया। इस आंदोलन ने अंग्रेजों को कमजोर कर दिया और ब्रिटिश राज व्यवस्था के प्रति जमकर असंतोष पनपा जिसने 1947 के भारत की आज़ादी की नींव रखी।

राम मनोहर लोहिया ने भारत छोड़ो आंदोलन की पचीसवीं वर्षगांठ पर ट्राटस्की के हवाले से लिखा था कि रूस की क्रांति में वहां की सिर्फ एक प्रतिशत जनता ने हिस्सा लिया था,जबकि भारत की अगस्त क्रांति में देश के बीस प्रतिशत लोगों ने हिस्सेदारी की थी।

8 अगस्त 1942 को ‘भारत छोड़ो’प्रस्ताव पारित हुआ और 9 अगस्त की रात को कांग्रेस के बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए।

इस वजह से आंदोलन की सुनिश्चित कार्ययोजना नहीं बन पाई थी। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व सक्रिय था, लेकिन उसे भूमिगत रह कर काम करना पड़ रहा था।

इसी दौरान जेपी ने क्रांतिकारियों का मार्गदर्शन करने, उनका हौसला अफजाई करने और आंदोलन का चरित्र और तरीका स्पष्ट करने वाले ‘आजादी के सैनिकों के नाम’ दो लंबे पत्र अज्ञात स्थानों से लिखे।

भारत छोड़ो आंदोलन के महत्त्व का एक पक्ष यह भी है कि आंदोलन के दौरान जनता खुद अपनी नेता थी।

यह ध्यान देने की बात है कि गांधीजी ने आंदोलन को समावेशी बनाने के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में दिए अपने भाषण में समाज के सभी तबकों को संबोधित किया था- जनता, पत्रकार, नरेश, सरकारी अमला, सैनिक, विद्यार्थी आदि।

यहां तक उन्होंने अंग्रेजों,यूरोपीय देशों और मित्र राष्टों को भी अपने उस भाषण के जरिए संबोधित किया था।

सभी तबकों और समूहों से देश की आजादी के लिए ‘करो या मरो’ के उनके व्यापक आह्वान का आधार उनका पिछले पचीस सालों के संघर्ष का अनुभव था।

भारत छोड़ो आंदोलन के जो भी घटनाक्रम,प्रभाव और विवाद रहे हों, मूल बात थी भारत की जनता में लंबे समय से पल रही आजादी की इच्छा का विस्फोट।

इस आंदोलन के दबाव में भारत के आधुनिकतावादी मध्यमवर्ग से लेकर सामंती नरेशों तक को यह लग गया था कि अंग्रेजों को अब भारत छोड़ना होगा। इसलिए अपने वर्ग-स्वार्थ को बचाने और मजबूत करने की फिक्र उन्हें लगी।

इसलिए आजादी बाद भी प्रशासन का लौह-शिकंजा और उसे चलाने वाली भाषा अंग्रेजों की बनी रही, साथ ही विकास का मॉडल भी वही रहा।

परिणाम स्वरुप भारत का ‘लोकतांत्रिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष’ संविधान भी पूंजीवाद और सामंतवाद के गठजोड़ की छाया से पूरी तरह नहीं बच पाया।

अंग्रेजों के वैभव और रौब-दाब की विरासत,जिससे भारत की जनता के दिलों में भय बैठाया जाता था,भारत के शासक वर्ग ने अपनाए रखी।

दिन ब दिन वह उसे मजबूत भी करता चला गया। गरीबी, भ्रष्टाचार, महंगाई, बीमारी, बेरोजगारी, शोषण, कुपोषण, विस्थापन और किसानों के आत्महत्याओं का मलबा बने हिंदुस्तान में शासक वर्ग का यह वैभव हमें अश्लील जरूर लेकिन वह उसी में डूबा हुआ है।

सेवाग्राम और साबरमती आश्रम के छोटे और कच्चे कक्षों में बैठ कर गांधी को दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यशाही से राजनीतिक-कूटनीतिक संवाद करने में असुविधा नहीं हुई। यहां तक कि अपना चिंतन-लेखन-आंदोलन करने में भी नहीं। लेकिन भारत के शासक वर्ग ने गांधी से कोई प्रेरणा नहीं ली।

गांधी का आदर्श अगर सही नहीं था तो वह सादगी का कोई और आदर्श सामने रख सकते थे,लेकिन उनके जैसी कोई बात इतने वर्षों बाद आज तक नहीं दिखी।

अपने जमाने में राममनोहर लोहिया ने आजाद भारत के शासक-वर्ग और शासनतंत्र की सतत और विस्तृत आलोचना की थी। उन्होंने उसे अंग्रेजी राज का विस्तार बताया था।

शायद उन्हें लगा होगा कि उनकी आलोचना से राजनेताओं और शासक वर्ग का चरित्र बदलेगा,शासनतंत्र में परिवर्तन आएगा और भारत की अवरुद्ध क्रांति आगे बढ़ेगी, लेकिन इतने सालों बाद भी उनके इस कथन का जरा-सा भी असर हमारे शासक-वर्ग में नहीं हुआ।

आज जब हम अगस्त क्रांति की 75वीं सालगिरह मना रहे हैं तो सोचें कि क्या हम जनता का पक्ष मजबूत करना चाहते हैं? या स्वतंत्रता आंदोलन के प्रेरणा-प्रतीकों,प्रसंगों और विभूतियों का उत्सव मना कर उनके सारतत्त्व को खत्म कर देना चाहते हैं?

ये अहम सवाल हैं, जो आज आजाद भारत में सांस ले रहे प्रत्येक नागरिकों के साथ सत्तारूढ़ और उच्च पद पर आसीन लोगों को भी सोचने चाहिए। साथ ही भारत के विकास की यदि वे बात करते हैं तो इस ओर उन्हें ध्यान देने की आवश्यकता है।

LIVE TV