ईमानदारी का पालन सबसे पहले खुद के स्तर पर होना चाहिए, पढ़ें रोचक कहानी

रहीम चाचा नामी मूर्तिकार थे। उनकी मूर्तियों में कोई मामूली-सा भी नुक्स नहीं निकाल पाता था। एक दिन शहर से एक बड़े उद्योगपति खंबाटा जी रहीम चाचा की दुकान पर मूर्ति लेने आए। रहीम चाचा बोले,  आपको जो भी मूर्ति चाहिए, आप मुझे बता दीजिए। मैं बना दूंगा। खंबाटा जी को अपने दफ्तर के आगे लगाने के लिए बुद्ध की एक विशाल मूर्ति बनवानी थी। उन्होंने अपनी सारी प्राथमिकताएं गिनानी शुरू की। चाचा बोले, अगर आप मुझे कुछ समय दें, तो मैं आपको ठीक आपकी अपेक्षाओं के मुताबिक मूर्ति बनाकर दे दूंगा। खंबाटा जी ने कुछ पैसे एडवांस देकर सौदा पक्का कर लिया।

ईमानदारी

जब कुछ दिन बीत गए और खंबाटा जी को मूर्ति नहीं मिली, तो दुकान पर आकर उन्होंने पूछा, क्यों भाई, मेरी मूर्ति का क्या हुआ? चाचा बोले,  मुझे क्षमा करें, आपकी मूर्ति अभी तैयार नहीं हो पाई है। पर मैं उसी पर काम कर रहा हूं और जल्द ही आपको भिजवा दूंगा। तब तक खंबाटा जी की नजर वहां पर रखी बुद्ध की वैसी ही मूर्ति पर पड़ी, जैसी उन्होंने मांगी थी।

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वह बोले, चाचा, मैंने आपको मूर्ति का ऑर्डर पहले दिया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप मेरी मूर्ति किसी और खरीदार को देकर मुझे मेरी मूर्ति देरी से बनाकर दे रहे हो। रहीम चाचा बोले, नहीं हुजूर, ऐसा बिल्कुल नहीं है। खंबाटा जी बोले, फिर यह मूर्ति किसकी है? आप ऐसा करें, यही मूर्ति मुझे दे दें। चाचा बोले, माफ कीजिएगा, यह मूर्ति बिकाऊ नहीं है। खंबाटा जी ने पूछा, पर है तो यह एकदम मेरी अपेक्षाओं जैसी। फिर आप यह मूर्ति किसको देंगे?

चाचा बोले, यह मूर्ति खराब हो गई है। खंबाटा जी ने पूरी मूर्ति जांची, फिर बोले, पर मुझे तो इसमें कोई खराबी नहीं दिखती। चाचा बोले, इस मूर्ति की नाक पर खरोंच लग गई थी। भले आपको वह न दिखाई दे, पर मुझे साफ दिखाई दे रही है। और मैं अपने आप से बेईमानी नहीं कर सकता। खंबाटा जी बहुत खुश हुए और चाचा को मूर्ति बनाने का पूरा समय और दोगुने पैसे भी दिए।

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