MP चुनाव संग्राम में अंदरूनी कलह से पार्टी में सिंधिया को कमजोर करने की पहली चाल सफल!

भोपाल। राजनीति में कहा जाता है कि ‘जब ताकतवर नेता से सीधे न टकरा सको तो पहले उसके सबसे बड़े हिमायती को कमजोर करो।’ मध्यप्रदेश के कांग्रेस नेताओं ने इसी तर्ज पर प्रचार अभियान के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया को कमजोर करने की चाल चली है और उसमें वे सफल होते भी नजर आ रहे हैं।

 अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया

विरोधियों ने सिंधिया के पक्ष में सबसे ज्यादा आवाज उठाने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी के बेटे को ही उम्मीदवार न बनाकर अपनी रणनीति का संदेश तो दे ही दिया है।

राज्य की कांग्रेसी राजनीति में चुनाव से पहले दो ध्रुव साफ नजर आ रहे हैं। एक तरफ सिंधिया हैं तो दूसरी ओर प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के नेतृत्व वाला खेमा है। कमलनाथ के खेमे में आगे बढ़कर सारी बात रखने की जिम्मेदारी पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के पास होती है।

यही कारण है कि पिछले दिनों बैठक में सिंधिया और दिग्विजय के बीच बहस होने और राहुल गांधी द्वारा दोनों को समझाए जाने की बात सामने आई थी। यह बात अलग है कि दिग्विजय ने इस बात का खंडन किया था।

राजनीतिक विश्लेषक रवींद्र व्यास का कहना है, “सिंधिया को राज्य के चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा बनाए जाने की सबसे ज्यादा पैरवी चतुर्वेदी ने ही की थी, इसके चलते चतुर्वेदी दूसरे गुट के निशाने पर रहे, चतुर्वेदी अपने बेटे को छतरपुर की बिजावर सीट से चुनाव लड़ाना चाहते थे, मगर दिग्विजय सिंह की मौजूदगी में बनी सहमति में बिजावर सीट शंकर प्रताप सिंह को देने की बात आई तो चतुर्वेदी सहर्ष तैयार हो गए।”

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उन्होंने कहा कि पार्टी में चतुर्वेदी के बेटे नितिन बंटी चतुर्वेदी को राजनगर से चुनाव लड़ाने और वर्तमान विधायक विक्रम सिंह उर्फ नातीराजा को लोकसभा में उम्मीदवार बनाने की सहमति बनी, जिसे चतुर्वेदी ने मान लिया। नातीराजा ने भी पार्टी की बैठक में सहमति दी।

व्यास आगे कहते हैं, “चतुर्वेदी और उनके पुत्र राजनगर से कई माह से तैयारी कर रहे थे, इसी दौरान नातीराजा ने विधानसभा का चुनाव लड़ने की मंशा जाहिर कर दी। लिहाजा, पार्टी के भीतर से सिंधिया विरोधी गुट से यह आवाज उठी कि वर्तमान विधायक का टिकट न काटा जाए, पार्टी के भीतर बनते दवाब के चलते चतुर्वेदी के बेटे को उम्मीदवार नहीं बनाया गया।”

कांग्रेस के सूत्रों का कहना है कि सिंधिया ने चतुर्वेदी के बेटे को टिकट दिलाने का पूरा जोर लगाया, मगर सामने खड़े गुट ने विरोध किया। विरोधी गुट किसी भी सूरत में सिंधिया को मजबूत नहीं रहने देना चाहता। लिहाजा, उसने सारे दांव-पेच खेलकर चतुर्वेदी के बेटे को टिकट नहीं मिलने दिया। यह फैसला सिंधिया के लिए राजनीतिक तौर पर बड़ा नुकसानदेह और पार्टी के भीतर कमजोर होने की तरफ इशारा भी करता है।

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बुंदेलखंड के बड़े हिस्से में कांग्रेस कार्यकर्ता पार्टी के फैसले से नाराज हैं। कार्यकर्ता रविवार को चतुर्वेदी के निवास पर भी पहुंचे। सभी ने चतुर्वेदी के बेटे को हर हाल में चुनाव लड़ाने की बात कही। पार्टी कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस फैसले का पूरे बुंदेलखंड की राजनीति पर बड़ा असर पड़ेगा।

चतुर्वेदी ने इसी साल राज्यसभा का कार्यकाल खत्म होते ही राजनीति से संन्यास लेने का फैसला ले लिया था, मगर वह भाजपा के खिलाफ हर स्तर पर संघर्ष के लिए तैयार थे। उन्होंने सिंधिया के लिए राज्य में मुहिम भी चलाई। पार्टी हाईकमान के कहने पर चतुर्वेदी ने समन्वय समिति का सदस्य बनना स्वीकारा और अपने धुर विरोधी दिग्विजय सिंह के साथ राज्य का दौरा भी किया, मगर विरोधी गुट ने चतुर्वेदी के जरिए सिंधिया को ‘जोर का झटका धीरे से’ दे ही दिया।

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