सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: अदालत राष्ट्रपति-राज्यपाल को बिल मंजूरी के लिए टाइमलाइन तय नहीं कर सकती, ‘डीम्ड असेंट’ का कॉन्सेप्ट असंवैधानिक

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (20 नवंबर 2025) को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के संवैधानिक संदर्भ पर अपना सलाहकारी फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया कि न्यायपालिका राज्य विधानसभाओं से पारित बिलों को मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति या राज्यपालों के लिए कोई समयसीमा तय नहीं कर सकती।

मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई की अगुवाई वाली पांच जजों की संविधान पीठ (जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंदुरकर) ने 111 पेज की राय में कहा कि यह कदम संघीय ढांचे, संवैधानिक पदाधिकारियों के विवेक और बेसिक स्ट्रक्चर के खिलाफ होगा। हालांकि, कोर्ट ने जोर दिया कि अत्यधिक, अस्पष्ट और अनिश्चित देरी लोकतांत्रिक शासन की आत्मा को क्षति पहुंचाती है, इसलिए इन पदाधिकारियों से अपेक्षा है कि वे उचित समय में निर्णय लें।

यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत मई 2025 में राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संदर्भ पर आया, जिसमें 14 प्रमुख सवाल उठाए गए थे। पीठ ने 10 दिनों तक दलीलें सुनीं और 11 सितंबर को फैसला सुरक्षित रखा था। कोर्ट ने ‘डीम्ड असेंट’ (स्वत: मंजूरी) के कॉन्सेप्ट को असंवैधानिक बताते हुए कहा कि यह न्यायिक हस्तक्षेप से कार्यपालिका के कार्यों पर कब्जा करने जैसा होगा।

फैसले के मुख्य बिंदु:

  • समयसीमा तय करने पर रोक: अदालतें अनुच्छेद 200 (राज्यपाल की शक्तियां) या 201 (राष्ट्रपति की शक्तियां) के तहत फैसलों की टाइमलाइन नहीं थोप सकतीं, क्योंकि संविधान में ऐसी कोई प्रावधान नहीं है।
  • देरी पर सीमित समीक्षा: लंबी, अस्पष्ट देरी पर ‘लिमिटेड ज्यूडिशियल स्क्रूटिनी’ संभव है, लेकिन ‘डीम्ड असेंट’ नहीं।
  • संघीय ढांचे की रक्षा: राज्य विधानसभाओं को निष्क्रिय करने वाली देरी अस्वीकार्य, लेकिन न्यायपालिका विवेक में हस्तक्षेप नहीं करेगी।
  • अनुच्छेद 142 का दुरुपयोग नहीं: सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के तहत संवैधानिक शक्तियों में बदलाव नहीं कर सकता।

राष्ट्रपति के 14 सवालों पर कोर्ट की राय:
राष्ट्रपति ने पांच पेज के संदर्भ पत्र में अनुच्छेद 200 और 201 से जुड़े ये सवाल पूछे थे। पीठ ने सभी पर विस्तृत जवाब दिए:

क्रमांकसवालकोर्ट की राय
1राज्यपाल के समक्ष विधेयक पेश होने पर अनुच्छेद 200 के तहत विकल्प क्या हैं?मंजूरी, पुनर्विचार के लिए वापस भेजना या राष्ट्रपति को रिजर्व करना।
2क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं?हां, लेकिन विवेक का उपयोग संभव।
3क्या राज्यपाल के फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है?हां, सीमित रूप से।
4क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल के फैसलों पर समीक्षा रोकता है?नहीं, पूरी तरह नहीं।
5क्या अदालतें राज्यपाल के फैसलों की समयसीमा तय कर सकती हैं?नहीं।
6क्या राष्ट्रपति के फैसले की समीक्षा हो सकती है?सीमित।
7क्या अदालतें राष्ट्रपति के फैसले की समयसीमा तय कर सकती हैं?नहीं।
8राज्यपाल द्वारा बिल रिजर्व होने पर क्या अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की सलाह ली जानी चाहिए?मामले के अनुसार।
9क्या अदालतें फैसले से पहले सुनवाई कर सकती हैं?नहीं।
10क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 से शक्तियों में बदलाव कर सकता है?नहीं।
11क्या राज्यपाल की मंजूरी के बिना कानून लागू हो सकता है?नहीं।
12क्या अनुच्छेद 145(3) के तहत मामलों को पांच जजों की बेंच को भेजा जा सकता है?हां।
13क्या सुप्रीम कोर्ट संविधान-विरुद्ध निर्देश दे सकता है?नहीं।
14क्या अनुच्छेद 131 केंद्र-राज्य विवादों को केवल सुप्रीम कोर्ट सुलझा सकता है?हां।

तमिलनाडु केस का बैकग्राउंड:
यह संदर्भ तमिलनाडु गवर्नर आरएन रवि द्वारा 10 बिलों को राष्ट्रपति को भेजने के विवाद से उपजा। 8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार राज्यपाल के लिए एक महीने और राष्ट्रपति के लिए तीन महीने का डेडलाइन तय किया था, जिसे अब ‘एग्रेजियस सिचुएशन’ को ठीक करने का कदम बताया गया। कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकारें राज्यपालों की ‘फैंसी’ पर निर्भर नहीं रह सकतीं। यह फैसला केंद्र-राज्य संबंधों को मजबूत करने वाला माना जा रहा है, लेकिन विपक्ष ने इसे ‘संघीय ढांचे पर हमला’ बताया।

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