प्रेरक-प्रसंग : एंड्रयू कार्नेगी

प्रेरक-प्रसंगघटना स्काटलैण्ड के डन फर्म लाइन की है। एक निर्धन बालक ने जन्म लिया। उसका पिता एक छोटा सा खोन्चा लेकर फेरी लगाया करता था और माँ घर पर केक बनाकर सड़क के नुक्कड़ पर बैठकर बेचा करती थी। उसने देखा कि इस गरीबी के वातावरण में यहाँ रहकर विकास नहीं हो सकता। इस वातावरण से वह ऊब गया और घर वालों से बिना कहे अमरीका चला गया।

वहाँ उसे एक इस्पात कम्पनी में चपरासी का पद मिल गया। काम बहुत थोड़ा था जब घंटी बजती तभी मैनेजिंग डाइरेक्टर के सामने हाजिर हो जाता और काम पूरा करके कार्यालय के बाहर रखे एक स्टूल पर बैठ जाता। उसे बेकार समय गुजारते अच्छा न लगता था। अतः मैनेजिंग डाइरेक्टर की अलमारी से कोई पुस्तक निकाल लाता और खाली समय में बैठे बैठे पढ़ता रहता।

एक दिन किसी बात पर डाइरेक्टरों में विवाद होने लगा। वह किसी निर्णय पर पहुँचने की स्थिति में न थे। वह चपरासी सभी चर्चा सुन रहा था अपने स्थान से उठा और अलमारी से एक पुस्तक निकाल कर उस पृष्ठ को खोलकर उनकी मेज पर रख दिया।, जिसमें उस प्रश्न का उत्तर था। एक स्वर से उसकी विद्वत्ता को सराहा गया। इसीलिए तो मिल्टन ने कहा था कि मन चाहे तो स्वर्ग को नरक और नरक को स्वर्ग बना सकता है। क्योंकि मन को संस्कारवान बनाने और व्यक्तिगत तथा सामाजिक समृद्धि को प्राप्त करने का उपाय है उद्देश्य पूर्ण ढंग से स्वाध्याय।

उस चपरासी ने उद्देश्य पूर्ण और योजनाबद्ध ढंग से स्वाध्याय करके यह दिखा दिया कि थोड़े समय में एक चपरासी भी मैनेजिंग डाइरेक्टर की योग्यता को प्राप्त कर सकता है। प्रगति के क्षेत्र में वह यहीं तक नहीं रुका रहा वरन् अपने परिश्रम, लगन और निरन्तर स्वाध्याय से करोड़पति बना, जिसका नाम एंड्रयू कार्नेगी था।

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