सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल है मां उग्रतारा मंदिर

मां उग्रतारा मंदिरलातेहार| झारखंड के लातेहार जिले के चंदवा प्रखंड के अंतर्गत आने वाले नगर गांव स्थित मां उग्रतारा मंदिर श्रद्घालुओं की अटूट आस्था और विश्वास का प्रतीक है। शक्तिपीठ और तंत्रपीठ के रूप में विख्यात यह मंदिर काफी पुराना बताया जाता है, जिसमें मां उग्रतारा विराजती हैं।

झारखंड की राजधानी रांची से करीब 100 किलोमीटर दूर प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण एवं पहाड़ियों के बीच बसे नगर गांव में रहने वाले हिंदुओं, मुसलमानों सहित सभी जाति-धर्म के लोगों की आस्था इस मंदिर से जुड़ी हुई है। यह मंदिर सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल है।

मंदिर का संचालन आज भी चकला गांव स्थित शाही परिवार के लोग ही करते हैं। यहां झारखंड ही नहीं, देश के विभिन्न राज्यों के सैकड़ों श्रद्घालु पूरे साल पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। यहां रामनवमी व दुर्गा पूजा का त्योहार बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है।

इस मंदिर की सबसे दिलचस्प बात यह है कि यहां दशहरा पूजा का आयोजन 16 दिन तक होता है। यहां प्रत्येक महीने की पूर्णिमा के दिन श्रद्घालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। टुढ़ामु गांव के मिश्रा परिवार के वंशज अब भी इस मंदिर के पुजारी हैं, जबकि इसकी देखरेख का जिम्मा चकला गांव स्थित शाही परिवार के सुपुर्द है।

इस मंदिर के निर्माण के संबंध में ‘पलामू विवरणिका 1961’ में लिखा गया कि यहां का मंदिर बनवाने का श्रेय प्रसिद्घ वीर मराठा रानी अहिल्याबाई को है। बंगाल यात्रा के क्रम में रानी का आगमन इस क्षेत्र में हुआ था। उन्होंने सभी जाति के लोगों को पूजा का अवसर प्रदान कराने के लिए यहां मंदिर का निर्माण कराया।

मंदिर के पुजारी गोविंद वल्लभ मिश्र बताते हैं कि दशहरा के समय यहां 16 दिवसीय विशेष पूजन का आयोजन किया जाता है। इस आयोजन पर सामान्य बलि (बकरा) के अलावा विशेष बलि भी दी जाती है, जिसमें संधि बलि में मछली, भतुआ, भैंसा आदि की बलि तथा दशमी के दिन खेदा काड़ा (भैंसा) की बलि दी जाती है। दशमी के दिन पूजन समाप्ति पर भगवती पर पान का पत्ता चढ़ाया जाता है, जिसके गिरने के बाद ही पूजा की सफलता का पता चलता है।

मिश्र बताते हैं कि पूजा पद्धति कालिका व मार्कण्डेय पुराण से ली गई है। जिस वर्ष में आश्विन दो माह का होता है, उस वर्ष पूजा 45 दिनों की होती है।

मंदिर में उग्रतारा की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं, जो हमेशा वस्त्राच्छादित रहती हैं। मुख्य प्रकोष्ठ में कमर भर ऊंची वेदी पर यह प्रतिस्थापित हैं। श्वेतप्रस्तर निर्मित मूर्तियों को शिल्प की दृष्टि से दक्षिणोत्तर शैली का सम्मिश्रण माना जाता है। इसके अतिरिक्त मंदिर प्रांगण में ही कुछ बौद्धकालीन प्रतिमाएं भी पड़ी हैं। इसे यहां भैरव के नाम से जाना जाता है और इसकी पूजा अर्चना की जाती है।

एक अन्य पुजारी बताते हैं कि मंदिर के पश्चिमी भाग में स्थित मंदारगिरी पर्वत पर मदार साहब का मजार है। किंवदंतियों के मुताबिक मदार साहब मां भगवती के बहुत बड़े भक्त थे। दशहरा के विशेष पूजन के समय मंदिर का झंडा नियत समय पर मदार साहब के मजार पर चढ़ाया जाता है। इस मंदिर में मुस्लिम समाज के लोग भी पूजा अर्चना कर मन्नत मांगने आते हैं।

श्रद्घालुओं को मंदिर के गर्भगृह में जाने की मनाही है। यहां मंदिर के पुजारी गर्भ गृह में जाकर श्रद्घालुओं के प्रसाद का भगवती को भोग लगाकर देते हैं। प्रसाद के रूप में मुख्य रूप से नारियल और मिसरी का भोग लगाया जाता है। मोहनभोग भी चढ़ाया जाता है, जिसे मंदिर के रसोइया खुद ही तैयार करते है। दोपहर में पुजारी भगवती को उठाकर रसोई में लाते हैं। वहां भात (चावल), दाल और सब्जी का भोग लगता हैं, जिसे पुजारी स्वयं तैयार करते हैं।

चतरा संसदीय क्षेत्र के सांसद सुनील कुमार सिंह कहते हैं कि पिछले महीने यहां दो दिवसीय ‘मां उग्रतारा महोत्सव’ का आयोजन किया गया था। उन्होंने कहा कि इस प्रसिद्घ मंदिर को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का लगातार प्रयास किया जा रहा है।

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