न खाने को रोटी न कपड़ों का हिसाब था, इनकी तो आँखों में बस एक ही ख्वाब था

मधुसूदनसपने तो सभी देखते हैं और ऊंचाई पर पहुँचने की चाह भी सभी की होती है, लेकिन अपने सपने पूरे कर पाना सभी के बस की बात नहीं होती। दुनिया में हर नया इंसान अपनी आँखों में बस यही ख्वाब बसाए रहता है कि एक न एक दिन वह बड़ा आदमी जरूर बनेगा, पर तरक्की यूँ ही नहीं मिलती। इसके लिए इंसान को कड़ी मेहनत, लगन, सब्र और सबसे ज्यादा खुद पर भरोसे की जरूरत होती है। ऐसा ही सब्र और भरोसा लेकर एक बच्चा निकला था अपने ख़्वाबों को पूरा करने, जिसकी कहानी आज हम आपको बताने जा रहे हैं।

मधुसूदन का जज्बा बेमिसाल

यह कहानी है मधुसूदन राव की। मधुसूदन राव एमएमआर ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज़ के संस्थापक और निदेशक हैं। इन्होंने टेलीकॉम, आईटी, इलेक्ट्रिकल, मैकेनिकल, फ़ूड प्रोसेसिंग जैसे कई क्षेत्रों में अपनी कंपनियां खोली हैं। इनकी सभी कंपनी अच्छा काम करते हुए मुनाफा कमा रही हैं।

आज मधुसूदन भले ही करोड़ों के मालिक हैं पर यहाँ तक पहुंंचने के लिए उन्हें काफी दिक्कतों और परेशानियों का सामना करना पड़ा था।

ये कहानी शुरू होती है आन्ध्र प्रदेश के छोटे से गाँव पलकुरु से, जहाँ इस शख्शियत ने जन्म लिया था। यह गाँव प्रकाशम जिले की कन्दुकुरु तहसील में पड़ता है।

मधुसूदन का जन्म बहुत ही गरीब परिवार में हुआ था। मधुसूदन के पिता का नाम पेरय्या और माँ का नाम रामुलम्मा है। इनके माता-पिता दिन भर काम करते थे पर फिर भी दो जून की रोटी नहीं जुटा पाते थे। एक तो गरीबी और ऊपर से ये आठ भाई बहन, इनका पेट भर पाना इनके माता-पिता के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी।

सभी भाई-बहनों का पेट भरने के लिए पिता को दिहाड़ी पर बंधुआ मजदूरी करनी पड़ती थी। पिता का साथ देने के लिए माँ भी तम्बाकू फैक्ट्री में काम करतीं थीं।

जब ये बहुत छोटे थे तो इन्हें अपने परिवार की सही जानकारी नहीं थी। इन्हें नहीं पता था कि अमीर गरीब क्या होता है या जात-पात भी कोई चीज होती है। इसी वजह से अपने माता-पिता से अक्सर पूछ लिया करते थे कि हम झोपड़े में क्यों रहते हैं, औरों की तरह मकानों में क्‍यों नहीं रहते।

जैसे-जैसे वे बड़े हुए उन्हें सभी चीजेंं धीरे-धीरे पता चलने लगीं। उन्हें पता चला कि वो ऐसे परिवार से थे जो नीची जाति में गिना जाता है। लोग उनके परिवार की तरफ घृणा से देखते थे। यहाँ तक उनके परिवार को सिर उठाकर बात करने की भी आजादी नहीं थी।

तब से उन्होंने मन में ठान लिया कि वे अपने परिवार को ऐसी जिंदगी से निकाल कर ही रहेंगे। उन्होंने अपने माता-पिता से स्कूल जाने के लिए कहा। इनका रुझान देखकर इनका दाखिला सरकारी स्कूल में करा दिया गया। स्कूल के बाद इन्होंंने हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करने का मन बनाया। इन्होंंने खूब दिल लगाकर पढ़ाई की और सोशल वेलफेयर हॉस्टल से 12वीं की परीक्षा पास कर ली। बड़े भाई माधव ने बीटेक का कोर्स चुना था। मधुसूदन भी बीटेक ही करना चाहते थे। लेकिन, भाई और कुछ दूसरे लोगों ने पॉलिटेक्निक करने की सलाह दी थी। इस सलाह के पीछे भी एक ख़ास वजह थी। उन दिनों लोगों की ये धारणा थी कि किसी और कोर्स से मिले न मिले, पॉलिटेक्निक कोर्स करने पर नौकरी ज़रूर मिलेगी। मधुसूदन को भी भाई की सलाह और दलील पर यकीन हो गया। उन्होंने फिर एंट्रेंस लिखा और क्वालीफाई कर तिरुपति के श्री वेंकटेश्वरा विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। मधुसूदन ने 2 साल तिरुपति और एक साल ओंगोल में पढ़ाई कर पॉलिटेक्निक डिप्लोमा हासिल कर लिया।

डिप्लोमा मिलने के बाद परिवार वालों की उम्मीदें बढ़ने लगीं। इन पर नौकरी पाने का दबाव बढ़ने लगा। इन्होंंने कई जगहों पर नौकरी के लिए आवेदन किये पर काम नहीं बना। वजह कहीं इनकी जाति बीच में आ जाती थी तो कहीं इनके परिवार का बैक ग्राउंड।

जब बहुत ढूँढने पर भी नौकरी नहीं मिली तो मधुसूदन का फैसला था कि वो अपने दूसरे भाई-बहनों की तरह ही मजदूरी करेंगे। उनका एक भाई हैदराबाद में मिस्री का काम करता था। मधुसूदन ने अपने भाई के यहाँ ही मजदूरी करनी शुरू कर दी। भवनों और बंगलों के निर्माण के लिए मिट्टी और पत्थर ढोए। दीवारों पर पानी डाला। हर वो काम किया, जो निर्माणकर्मी करते हैं।

चूँकि मजदूरी ज्यादा नहीं मिलती थी, मधुसूदन ने दूसरे काम भी ढूंढने शुरू कर दिए। उन्हें दिन में मजदूरी करने पर पचास रुपये मिलते थे। जब उन्हें पता चला कि रात में काम करने पर एक सौ बीस रुपये मिलते हैं, तब उन्होंने रात में भी काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने वॉचमैन की तरह भी काम किया। अलग-अलग जगह मजदूरी की।

इरादे नेक थे और ईमानदारी से पूरी ताकत लगाकर काम करते थे, इसी वजह से शायद ज़िंदगी ने उन्हें एक और बढ़िया मौका दिया।

एक दिन वो एक खम्भा गाड़ने के लिए खुदाई कर रहे थे। वहीँ कुछ दूरी पर एक इंजीनियर उन्हें खुदाई करते देख रहा था। वो इनके खुदाई करने के तरीके को देखकर समझ गया कि ये जरूर इंजीनियरिंग के विषय के जानकार आदमी हैं। उन्होंने मधुसूदन से उनकी योग्यता पूछी और इन्हें नौकरी का प्रस्ताव दिया।

वो इंजीनियर मदुसूदन को अपने दफ्तर ले गया। मधुसूदन का इंटरव्यू शुरू हुआ। एक तरफ इंटरव्यू जहाँ चल रहा था, वहीं दूसरी तरफ एक बड़े ठेकेदार और उप ठेकेदार के बीच एक ठेके को लेकर बहस चल रही थी। उप ठेकेदार ज्यादा रकम मांग रहा था। ये देखकर मधुसूदन ने बड़े ठेकेदार से वो ठेका उन्हें दे देने की गुज़ारिश की। मधुसूदन ने बड़े ठेकेदार को भरोसा दिलाया कि वो मजदूरों से काम लेने के मामले में एक्सपर्ट हैंं और उसका सारा परिवार ठेके और मजदूरी का ही काम करता है। पहले तो उस बड़े ठेकेदार ने मधुसूदन से अपने इंटरव्यू पर ध्यान देने को कहा, लेकिन जब उस उप ठेकेदार से उसकी बात नहीं बनी तब उसने मधुसूदन को वो ठेका दे दिया।

ठेका तो मिल गया, लेकिन मधुसूदन के पास मजदूरों को एडवांस देकर उन्हें जुटाने और काम शुरू करवाने के लिए ज़रूरी पांच हज़ार रुपये भी नहीं थे। मधुसूदन ने अपने भाई-बहनों से मदद माँगी। उनकी एक बहन ने उन्हें नौ सौ रुपये दिए। यही रकम लेकर वे मजदूरों के पास गये और काम करने को मनाया। नौ सौ रुपयों से काम शुरू हो गया।

पहले ही दिन बीस हज़ार रुपये की आमदनी हुई। इस दिन से मधुसूदन के दिन बदल गए और उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

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