प्रेरक-प्रसंग : नरक का द्वार

एक युवक था। वह बंदूक और तलवार चलाना सीख रहा था। इसलिए वह यदा-कदा जंगल जाकर खरगोश, लोमड़ी और पक्षियों आदि का शिकार करता। शिकार करते-करते उसे यह घमंड हो गया कि उसके जैसा निशानेबाज़ कोई नहीं है और न उसके जैसा कोई तलवार चलाने वाला। आगे चलकर वह इतना घमंडी हो गया कि किसी बड़े के प्रति शिष्टाचार भी भूल गया।

नरक का द्वार

उसके गाँव के बाहर कुटिया में एक संत रहते थे। वह एक दिन उनके पास पहुँचा। न उन्हें प्रणाम किया और न ही अपना परिचय दिया। सीधे उनके सामने पड़े आसन पर बैठ गया और कहने लगा, ‘लोग बेकार में स्वर्ग-नरक में विश्वास करते हैं?

संत ने उससे पूछा, ‘तुम तलवार साथ में क्यों रखते हो?’
उसने कहा, ‘मुझे सेना में भर्ती होना है, कर्नल बनना है।’
इस पर संत ने कहा, ‘तुम्हारे जैसे लोग सेना में भर्ती किए जाते हैं? पहले अपनी शक्ल शीशे में जाकर देख लो।’

यह सुनते ही युवक ग़ुस्से में आ गया और उसने म्यान से तलवार निकाल ली। तब संत ने फिर कहा, ‘वाह! तुम्हारी तलवार भी कैसी है? इससे तुम किसी भी बहादुर आदमी का सामना नहीं कर सकते, क्यों कि वीरों की तलवार की चमक कुछ और ही होती है।’

फिर तो युवक गुस्से से आग-बबूला हो गया और संत को मारने के लिए झपटा। तब संत ने शांत स्वर से कहा, ‘अब तुम्हारे लिए नरक का दरवाज़ा खुल गया।’

यह सुनते ही युवक की अक्ल खुल गई और उसने तलवार म्यान में रख ली। अब वह सर झुककर संत के सामने खड़ा था और अपराधी जैसा भाव दिखा रहा था। इस पर संत ने कहा, ‘अब तुम्हारे लिए स्वर्ग का दरवाज़ा खुल गया।’

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