छोटे स्टार्टअप के चलन को तेजी से हवा देता ल्युपिन फाउंडेशन, अपने प्रयासों से दे रहा सबको सपोर्ट

नई दिल्ली| देश में स्टार्टअप का चलन तेजी से बढ़ रहा है। आज हम आपको राजस्थान के भरतपुर जिले में घर-घर स्टार्टअप नजर आएंगे। इसकी वजह से यहां के लोग न सिर्फ अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं बल्कि देश की इकोनॉमी में भी योगदान दे रहे हैं। ल्युपिन फाउंडेशन ऐसे ही लोगों को तकनीकी और आर्थिक सहयोग दे रहा है।

छोटे स्टार्टअप के चलन को तेजी से हवा देता ल्युपिन फाउंडेशन, अपने प्रयासों से दे रहा सबको सपोर्ट

राजस्थान का शहर भरतपुर। यहां के गांव-गांव में स्टार्टअप नजर आते हैं। कोई चूड़ियां बना रहा है तो कोई शहद से जिंदगी में मिठास घोल रहा है। किसी के पास कपड़े बनाने का काम है तो किसी के पास पत्थर तराशने का। तुलसी के पौधों से कैसे हजारों रुपये महीना कमाये जा सकते हैं। दवाओं के उस्ताद लोगों को ये नुस्खा भी सिखा रहे हैं। विनीत सिंह ने मधुमक्खी पालन से शहद निकालने के लिए ऐसे ही 50 डिब्बों से अपने कारोबार की शुरुआत की थी। लेकिन ल्यूपिन फाउंडेशन से मिले तकनीकी और आर्थिक सहयोग का नतीजा है कि आज इनका कारोबार 120 करोड़ रुपये के पार पहुंच चुका है।

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भरतपुर के गांवों में आज 3 हजार से ज्यादा परिवार विनीत की तरह बनने का सपना संजोए हुए हैं। मधुमक्खी पालन के लिए लगे एक बॉक्स से सालाना 50 किलो शहद निकलता है, और 120 रुपये प्रति किलो तक बिकता है, हालांकि इसमें चुनौतियां भी कम नहीं है। ये भट्टी आईआईटी के डिजाइन और ल्युपिन की फंडिंग का नतीजा है जिसने चूड़ी बनाने की पारंपरिक भट्टी को किफायती तकनीक में बदल दिया है।

इसमें ईंधन की खपत कम होती है और फाइन डस्ट से होने वाली सिलकोसिस बीमारी का खतरा भी नहीं होता। ऊंच गांव के लोग करीब 37 किलो कांच का गठ्ठर 1,250 रुपये में खरीद कर लाते हैं जिससे 10 हजार चूड़ियां बनती हैं। हर 500 चूड़ियों के बदले सवा दो सौ रुपए मिल जाते हैं। तुलसी की लकड़ी से तुलसी मालाएं बनाई जा रही है। खेरियापुरोहित गांव की 3,400 से ज्यादा महिलाएं इस कारोबार से जुड़ी हुई हैं। एक माला की कीमत 10 रुपये है। एक महिला अगर 50 मालाएं रोजाना बनाती है तो 500 रुपए की कमाई पक्की। भरतपुर के जिला कलेक्टर भी ल्युपिन के कामों की सराहना करते हैं।

ल्युपिन फाउंडेशन का काम कई चेहरों पर मुस्कान और घर में आर्थिक तरक्की ला रहा है। जरूरत कुछ और ऐसे ही प्रयासों की है जिससे लोगों को उनके गांव में ही रोजगार मिल सके और शहरों की तरफ बढ़ते पलायन का बोझ भी कम हो सके। जरूरत इस बात की भी है कि ल्युपिन की तरह ही अन्य कंपनियां भी कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के महत्व को समझें और विकास में बढ़-चढ़ कर साझेदार बनें।

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