
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने अपने दिल्ली स्थित आधिकारिक आवास पर भारी मात्रा में नकदी मिलने के बाद गठित इन-हाउस जांच समिति की रिपोर्ट और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) की उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश को चुनौती दी थी। इस फैसले ने संसद में जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया को तेज करने का रास्ता साफ कर दिया है।

14 मार्च 2025 को जस्टिस यशवंत वर्मा, जो उस समय दिल्ली हाईकोर्ट के जज थे, के आधिकारिक आवास (30, तुगलक क्रिसेंट, नई दिल्ली) के स्टोररूम में आग लगने के दौरान दमकल कर्मियों को चार-पाँच बोरे आधे जले हुए 500 रुपये के नोट मिले। इस घटना ने भारी विवाद खड़ा किया, जिसके बाद तत्कालीन CJI संजीव खन्ना ने 22 मार्च को तीन सदस्यीय इन-हाउस जांच समिति गठित की, जिसमें पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जी.एस. संधावालिया, और कर्नाटक हाईकोर्ट की जज अनु शिवरमन शामिल थे।
समिति ने 55 गवाहों से पूछताछ और इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों (वीडियो और तस्वीरें) की जाँच के बाद 3 मई को अपनी 64 पेज की रिपोर्ट में जस्टिस वर्मा को “कदाचार” का दोषी पाया। रिपोर्ट में कहा गया कि स्टोररूम “जस्टिस वर्मा और उनके परिवार के प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण” में था, और उन्होंने नकदी के स्रोत के बारे में कोई विश्वसनीय स्पष्टीकरण नहीं दिया, सिवाय “सपाट इनकार” और “साजिश” का आरोप लगाने के। CJI ने जस्टिस वर्मा को इस्तीफा देने की सलाह दी, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। इसके बाद, 8 मई को CJI ने समिति की रिपोर्ट और जस्टिस वर्मा का जवाब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजकर उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश की।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ए.जी. मसीह की पीठ ने जस्टिस वर्मा की याचिका पर सुनवाई के बाद इसे खारिज कर दिया। कोर्ट ने अपने फैसले में निम्नलिखित बिंदुओं पर जोर दिया:
- इन-हाउस जांच की वैधता: कोर्ट ने कहा कि इन-हाउस जांच प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के 1990 के दशक के फैसलों से स्थापित है और यह संवैधानिक ढांचे के बाहर कोई समानांतर तंत्र नहीं है। यह प्रक्रिया “संस्थागत अखंडता” बनाए रखने के लिए है और जजेज (इन्क्वायरी) एक्ट, 1968 के तहत संसदीय प्रक्रिया के पूरक के रूप में काम करती है।
- प्रक्रिया का पालन: कोर्ट ने कहा कि CJI और जांच समिति ने प्रक्रिया का “निष्ठापूर्वक पालन” किया। जस्टिस वर्मा के वकील कपिल सिब्बल और मुकुल रोहतगी द्वारा उठाए गए सभी तर्कों को खारिज करते हुए, कोर्ट ने कहा कि जस्टिस वर्मा को जवाब देने का मौका दिया गया था, और CJI द्वारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र भेजना असंवैधानिक नहीं था।
- सार्वजनिक खुलासे पर टिप्पणी: जस्टिस वर्मा ने दावा किया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 22 मार्च को आधे जले नोटों का वीडियो और तस्वीरें सार्वजनिक करना “मीडिया ट्रायल” को बढ़ावा देता है। कोर्ट ने माना कि वीडियो अपलोड करना आवश्यक नहीं था, लेकिन चूंकि जस्टिस वर्मा ने उस समय इसे चुनौती नहीं दी, इसलिए अब इस पर कोई विवाद नहीं उठाया जा सकता।
- सुनवाई का अधिकार: जस्टिस वर्मा ने तर्क दिया कि CJI ने उन्हें व्यक्तिगत सुनवाई का मौका नहीं दिया। कोर्ट ने कहा कि इन-हाउस प्रक्रिया में ऐसी सुनवाई अनिवार्य नहीं है, और उनके मौलिक अधिकारों का कोई उल्लंघन नहीं हुआ।
- भविष्य की संभावनाएँ: कोर्ट ने कहा कि यदि जस्टिस वर्मा चाहें, तो भविष्य में संसदीय जांच के दौरान अपनी बात रख सकते हैं, लेकिन वर्तमान याचिका “मनोरंजन योग्य नहीं” है।
जस्टिस वर्मा के तर्क
जस्टिस वर्मा ने अपनी याचिका में कहा कि:
- इन-हाउस जांच समिति के पास उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं था, क्योंकि यह अधिकार केवल संसद को है, जो संविधान के अनुच्छेद 124 और 218 और जजेज (इन्क्वायरी) एक्ट, 1968 के तहत विशेष बहुमत से महाभियोग प्रक्रिया शुरू कर सकती है।
- समिति ने “पूर्व-निश्चित” तरीके से काम किया और उन्हें उचित बचाव का मौका नहीं दिया। उन्होंने दावा किया कि नकदी की मौजूदगी के लिए कोई ठोस सबूत नहीं थे, और समिति ने “प्रमाण का बोझ” उलटकर उन पर गलत निष्कर्ष निकाले।
- नकदी को जब्त नहीं किया गया, न ही कोई पंचनामा तैयार किया गया, और सुप्रीम कोर्ट द्वारा वीडियो का सार्वजनिक खुलासा उनकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने वाला था।
- उन्होंने आरोप लगाया कि यह “साजिश” थी और नकदी उनकी या उनके परिवार की नहीं थी।
महाभियोग की प्रक्रिया
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने संसद में जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया को तेज करने का रास्ता साफ कर दिया है। 21 जुलाई से शुरू हुए संसद के मॉनसून सत्र में 158 सांसदों (लोकसभा में 100 और राज्यसभा में 50 से अधिक) ने उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें बीजेपी, कांग्रेस, टीडीपी, जेडीयू, और सीपीएम जैसे दलों के सांसद शामिल हैं। संविधान के अनुच्छेद 124 और जजेज (इन्क्वायरी) एक्ट, 1968 के तहत, महाभियोग प्रस्ताव को दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित करना होगा। इसके लिए लोकसभा स्पीकर एक तीन सदस्यीय समिति गठित करेंगे, जिसमें एक सुप्रीम कोर्ट जज, एक हाईकोर्ट मुख्य न्यायाधीश, और एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता शामिल होंगे।
पृष्ठभूमि और अन्य विवाद
- आग और नकदी की खोज: 14 मार्च की रात 11:30 बजे के बाद जस्टिस वर्मा के आवास के स्टोररूम में आग लगी। दमकल कर्मियों ने आग बुझाने के दौरान आधे जले नोटों के बोरे देखे, जिनका वीडियो बनाया गया। दिल्ली पुलिस आयुक्त संजय अरोड़ा ने 15 मार्च को गृह मंत्री अमित शाह और दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय को सूचित किया।
- ट्रांसफर और न्यायिक कार्य वापसी: मार्च के अंत में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जस्टिस वर्मा को उनके मूल इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्थानांतरित कर दिया, और CJI के निर्देश पर उनके न्यायिक कार्य वापस ले लिए गए।
- एफआईआर की माँग: अधिवक्ता मैथ्यूज जे. नेदुमपारा ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की माँग की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 21 मई को “अकाल्पनिक” बताकर खारिज कर दिया, क्योंकि मामला CJI द्वारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजा जा चुका था।