अपराध की दुनिया का ऐसा डॉन जो बनने जा रहा था सूबे का मुखिया!

अमित विक्रम शुक्ला

उत्तर प्रदेश में राजनीतिक रंजिश और सियासी वर्चस्व कायम करने का खेल आज का नहीं। बल्कि दशकों पुराना है। एक ऐसा भी समय था, जब सूबे के एक से एक बड़े राजनीतिक धुरंधर अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए हर दिन नए पैंतरे चलते थे।

लेकिन कहते हैं न कि राजनीति में लुकाछिपी का खेल ज्यादा दिन नहीं चलता। और राजनीति में कौन किसका बाप बन जाये। इस बात का आंकलन तो एक से एक मठाधीश भी नहीं कर पाते हैं।

ये उत्तर प्रदेश की सियासत है। जो ‘उत्तर’ नहीं। बल्कि ‘सवाल’ खड़े करती है। यहां चाय की दुकान पर कप धुलता हुआ लड़का भी आपको राजनीति की ऐसी क्लास दे जाएगा। जिसके बाद आपके अंतर्मन में छुपे राजनीतिक ज्ञान को उसी कप के साथ धुलकर नाली में फेंक देने का मन करेगा।

ये उस सूबे की राजनीति है। जहां की हर नुक्कड़ की दुकान पर रोज नए प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री बनते और बिगड़ते रहते हैं।

वैसे तो असली गैंगस्टर जो है, वो मुंबई का भीकू म्हात्रे है। या वासेपुर का बेटा फैजल खान। फिल्मों के बड़े-बड़े शौकीन लोग सब यही मानते हैं। लेकिन जैसा तुम पिक्चर-उच्चर में देखते हो, वैसा और उससे कहीं ज्यादा, उत्तर प्रदेश की ‘उद्यमी’ और ‘ऊधमी’ धरती पर बहुत पहले हो चुका है।

कहानी है यूपी के उस डॉन की, जो अपराध और ताकत की सीढ़ियां इस तेजी से चढ़ा, जिस तेजी से GTA वाइस सिटी के मिशन पूरे किए जाते हैं। बहन को छेड़ने वाले का मर्डर करके वह बदमाश बना। फिर कई नेताओं और बदमाशों का काम लगा के कच्ची उम्र में बड़ी हैसियत बना ली।

वैसे तो नई राजनीति में युवा ‘फैक्टर’ सबपर भारी है। लेकिन ये उस नौजवान की कहानी है, जिसके गोली के निशाने पर वो लोग आ गये। जिन्होंने खुद को राजनीति में अमर समझ लिया था। आखिर कौन है वो खूंखार गैंगस्टर जिसके कारनामों ने पुलिस महकमें की नाक में दम कर दिया।

सवाल कई हैं। लेकिन जवाब बस एक ‘श्रीप्रकाश शुक्ला’। ये वो नाम है। जोकि सूबे में अपराध का पर्याय बन चुका था। चारों तरफ बस एक ही नाम गूंजता था। वो चाहे अखबार की लाइनें हो, या लखनऊ पुलिस हेडक्वार्टर में बातें।

श्रीप्रकाश शुक्ला

यही नहीं उसके सियासी रसूख और अपराध ने ऐसा तहलका मचा रखा था कि लोग उसे सूबे का होने वाला मुख्यमंत्री तक बोलने लग गये थे।

आखिर कौन था श्रीप्रकाश शुक्ला

90 के दशक में पूर्वांचल यानी उत्तर प्रदेश के अखबारों के पन्नों पर दहशत का साया साफ दिखाई पड़ता था। हत्या, अपहरण, डकैती और अवैध उगाही में एक खास नाम की वजह से न केवल आम आदमी परेशान था, बल्कि इस नाम ने प्रशासन के भी कान खड़े कर रखे थे।

नाम तो सबने सुना था, लेकिन उसकी कोई तस्वीर पुलिस के पास नहीं थी। दहशत का दूसरा नाम था कुख्यात माफिया- श्रीप्रकाश शुक्ला।

श्रीप्रकाश शुक्ला गोरखपुर के ममखोर गांव में पैदा हुआ था। कुश्ती का शौकीन शुक्ला अपने गांव का जानामाना पहलवान था। उसने वर्ष 1993 में पहली बार राकेश नामक एक व्यक्ति की हत्या कर दी। वजह युवक ने उसकी बहन को देखकर सीटी बजाई थी।

इस घटना के बाद वह बैंकॉक भाग गया। जब वह लौटा तो बिहार के सूरजभान सिंह के गैंग में शामिल हो गया। फिर यही से शुरू हुआ श्रीप्रकाश शुक्ला का आपराधिक सफर।

शाही की हनक पर भारी पड़े तिवारी

1997 के शुरुआती दौर में तब वीरेन्द्र शाही की हनक थी। शाही की पकड़ राजनीतिज्ञ और अपराध जगत के लोगों में बराबर की थी। कहा जाता है कि उस वक़्त हरिशंकर तिवारी शाही का कट्टर प्रतिद्वंद्वी था। और यह भी माना जाता है कि हरिशंकर तिवारी की ही शह पर श्रीप्रकाश शुक्ला ने शाही की हत्या की थी।

 

वीरेन्द्र शाही

इस घटना के बाद से सूबे में श्रीप्रकाश शुक्ला के नाम से दहशत फैलनी शुरू हो गई।

बदमाशी भी, रंगबाजी भी, अय्याशी भी

बदमाशी के साथ वह आला दर्जे का अय्याश भी था और आखिर में इसी आदत ने उसका काम लगाया। उसकी पसंद थीं, बड़े होटल, मसाज पार्लर, सोने की जंजीरें और तेज भागने वाली कारें। फिल्मी आदमी था। दोस्तों के सामने डायलॉग मारता रहता था। उस दौर में वह सेलफोन का बड़ा दीवाना था।

और डींगे हांकता था कि उसका टेलीफोन का खर्च रोजाना 5 हजार रुपये है। जाहिर है, जिस आर्थिक बैकग्राउंड से वह आता था, पैसे का आकर्षण उसके लिए सहज था।

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रंगबाजी और बदमाशी कभी एक-दूसरे के आड़े नहीं आई। श्रीप्रकाश एक शान-ओ-शौकत वाली जिंदगी जी रहा था। लेकिन उसे और ज्यादा चाहिए था।

उसे एहसास था कि यूपी में बड़े-बड़े माफिया हैं जो उसे नौसिखिये से ज्यादा नहीं समझेंगे। उन्हें ठोंक-पीट के ही अपने नीचे लाना होगा। उसने तय कर लिया कि वह एक-एक करके हर मठाधीश का काम लगाएगा। और लगाया भी।

ब्राह्मण लॉबी का था करीबी

श्रीप्रकाश पूरी ब्राह्मण लॉबी के करीब था। कल्याण सिंह को वह निजी दुश्मन मानता था।

अमरमणि त्रिपाठी

STF की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रभा द्विवेदी, अमरमणि त्रिपाठी, रमापति शास्त्री, मार्कंडेय चंद, जयनारायण तिवारी, सुंदर सिंह बघेल, शिवप्रताप शुक्ला, जितेंद्र कुमार जायसवाल, आरके चौधरी, मदन सिंह, अखिलेश सिंह और अष्टभुजा शुक्ला जैसे नेताओं से उसके रिश्ते थे।

श्रीप्रकाश शुक्ला से पुलिस की पहली मुठभेड़

पुलिस की श्रीप्रकाश शुक्ला से पहली मुठभेड़ 9 सितंबर 1997 को लखनऊ में हुई। पुलिस को अपने एक मुखबिर से यह सूचना मिली थी कि शुक्ला अपने कुछ दोस्तों के साथ एक सलून में बाल कटवाने जा रहा है। इस मुठभेड़ में पुलिस को कामयाबी नहीं मिली, उल्टा पुलिस का एक जवान शहीद हो गया।

बिहार के बाहुबली मंत्री का मर्डर

13 जून 1998 को श्रीप्रकाश शुक्ला ने पटना स्थित इंदिरा गांधी हॉस्पिटल के बाहर बिहार सरकार के तत्कालीन मंत्री बृज बिहारी प्रसाद की गोली मारकर हत्या कर दी। सिक्योरिटी गार्ड्स के मौजूद होने के बावजूद मंत्री की हत्या प्रशासन के लिए अपमानजक था।

मंत्री बृज बिहारी प्रसाद

मंत्री बृज बिहारी प्रसाद लाल बत्ती की कार से उतरे ही थे कि एके 47 से लैस श्रीप्रकाश और उसके 4 साथियों ने उन पर फायरिंग शुरु कर दी। इस कत्ल के साथ ही श्रीप्रकाश ने अपने मंसूबे साफ तौर पर ज़ाहिर कर दिए थे। अब पूरब से पश्चिम तक रेलवे के ठेकों पर कोई और हक़ नहीं जता सकता था। और उसके बाद से उसी का सिक्का चलने लगा।

बिहार के मंत्री के कत्ल की गुत्थी उत्तर प्रदेश की पुलिस अभी सुलझा ही रही थी कि तभी एक खबर से पुलिस दहशत में आ गई। दरअसल, श्रीप्रकाश शुक्ला ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की सुपारी ले ली थी।

मुख्यमंत्री कल्याण सिंह

6 करोड़ रुपए में मुख्यमंत्री की सुपारी लेने की खबर ने एसटीएफ की नींद उड़ा कर रख दी।

शुक्ला से निपटने के लिए बना एसटीएफ

लखनऊ स्थित सचिवालय में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, गृहमंत्री और डीजीपी की एक गोपनीय बैठक हुई, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि शुक्ला के बढ़ते अपराध को रोकने के लिए एक स्पेशल फोर्स (STF) का गठन किया जाए।

श्रीप्रकाश शुक्ला

4 मई 1998 को उत्तर प्रदेश पुलिस के तत्कालीन एडीजी अजयराज शर्मा ने राज्य पुलिस के बेहतरीन 50 जवानों को छांट कर STF बनाई।

हाथ धोकर पीछे पड़ी STF

STF का अब एक ही मकसद था- श्रीप्रकाश शुक्ला, जिंदा या मुर्दा। सारे घोड़े दौड़ा दिए गए। अगस्त 1998 के आखिरी हफ्ते में पुलिस को अहम सुराग मिला। पता चला कि दिल्ली के वसंत कुंज में श्रीप्रकाश ने एक फ्लैट लिया है। उसका धंधा अंधेरे में ही परवान चढ़ता। शाम होते ही वह अपने मोबाइल फोन से कॉल करने लगता।

मगर उससे एक बड़ी गलती हो गई। उसके पास 14 सिम कार्ड थे। लेकिन पता नहीं क्यों, जिंदगी के आखिरी हफ्ते में उसने एक ही कार्ड से बात की। इससे पुलिस को उसकी बातचीत सुनना और उस इलाके को खोजना आसान हो गया।

21 सितंबर की शाम एक मुखबिर ने STF को बताया कि अगली सुबह 5:45 बजे शुक्ला रांची के लिए इंडियन एअरलाइंस की फ्लाइट लेगा। दिल्ली एयरपोर्ट पर घात लगाने का प्लान बना। तड़के 3 बजे पुलिस तैनात हो गई, पर वह नहीं आया।

श्रीप्रकाश ने लखनऊ में 105 फ्लैट बनाने वाले एक बिल्डर को अपनी जिंदगी की आखिरी धमकी दी थी। उसकी मांग सीधी थी, ‘हर फ्लैट पर 50 हजार रुपये की रंगदारी।’

हरकत में आई STF

सीएम की सुपारी लेने की खबर से STF हरकत में आई और श्रीप्रकाश का मोबाइल नंबर सर्विलांस पर लगा दिया। श्रीप्रकाश को शक हो गया। अपनी दिल्ली की एक गर्लफ्रेंड से बात करने के लिए उसने मोबाइल की जगह पीसीओ का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। लेकिन पुलिस ने उसकी गर्लफ्रेंड के नंबर को भी सर्विलांस पर लगा रखा था और यह बात श्रीप्रकाश शुक्ला को नहीं पता थी।

मुख्यमंत्री कल्याण सिंह

एक दिन सर्विलांस से पता चला कि हाल ही में जिस पीसीओ से श्रीप्रकाश कॉल कर रहा है। वो गाजियाबाद के इंदिरापुरम इलाके में स्थित है। STF की टीम तुरंत हरकत में आई और एक टीम फौरन दिल्ली के लिए रवाना हो गई।

आख़िरकार मारा गया श्रीप्रकाश शुक्ला

23 सितंबर 1998 को STF के प्रभारी अरुण कुमार को खबर मिली कि श्रीप्रकाश दिल्ली से गाजियाबाद की तरफ आ रहा है। श्रीप्रकाश की कार ने जैसे ही वसुंधरा इन्क्लेव पार की। अरुण कुमार सहित टीम उसके पीछे लग गई।

उसकी कार जैसे ही इंदिरापुरम के सुनसान इलाके में दाखिल हुई, मौका मिलते ही STF की टीम ने श्रीप्रकाश की कार को ओवरटेक कर उसकी कार को रोक लिया। गाड़ी शुक्ला चला रहा था और अनुज प्रताप सिंह उसके साथ आगे और सुधीर त्रिपाठी पीछे बैठा था।

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पुलिस ने पहले श्रीप्रकाश को सरेंडर करने को कहा, लेकिन वह नहीं माना और फायरिंग शुरू कर दी। पुलिस की जवाबी फायरिंग में श्रीप्रकाश मारा गया।

इस तरह गुनाहों की दुनिया में महज़ 25 साल की उमर में दहशत पैदा करने वाले इस माफ़िया का अंत हो गया। वैसे श्रीप्रकाश शुक्ला की जिंदगी पर पिक्चर भी बन चुकी है। 2005 में आई थी, अरशद वारसी की ‘सहर।’

श्रीप्रकाश शुक्ला

शुक्ला का ऐसा अंत नहीं होता। अगर वह बदमाशी और रंगबाजी के नशे में चूर न होता। वह राजनीति में उतरना चाहता था और मुमकिन है कि जल्दी ही कानून से पटरी बैठा लेता। उसकी मौत से कुछ महीनों पहले लोग कहने लगे थे कि कहीं वह यूपी का मुख्यमंत्री न बन जाए।

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