खेतड़ी नरेश की प्रेरणा से शिकागो गए थे स्वामी विवेकानंद, शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन की 125वीं जयंती पर विशेष

इतिहास में कुछ ऐसे क्षण होते हैं, कुछ ऐसी घटनाएं घटती हैं, जो मनुष्यों की स्मृति में हमेशा के लिए अंकित हो जाती हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश छोड़ जाती हैं। स्वामी विवेकानंद और खेतड़ी नरेश अजीत सिंह का रिश्ता इसी इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और दोस्ती की एक खास मिसाल भी।

स्वामी विवेकानंद

नरेंद्रनाथ दत्त से स्वामी विवेकानंद बनने की कहानी शेखावाटी की धरती पर खेतड़ी से ही शुरू होती है और शिकागो के धर्म सम्मेलन में जाकर परवान पर चढ़ती है। शून्य पर भाषण देकर विश्व को मंत्रमुग्ध करने वाले स्वामीजी को विश्व में प्रसिद्ध दिलाने में और उनके संदेशों को जन-जन तक पहुंचाने में खेतड़ी नरेश अजीत सिंह के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

आज से ठीक 125 वर्ष पहले 11 सितंबर को राजा अजीत सिंह ने स्वामी विवेकानंद के शिकागो दौरे के लिए पानी के जहाज की प्रथम श्रेणी टिकट का इंतजाम किया और स्वामीजी ने शिकागो में भारत की धर्म पताका विश्व में अपने ओजस्वी उद्बोधन के माध्यम से लहराई।

स्वामी विवेकानंद ने खेतड़ी की तीन बार यात्राएं की थीं। उन्होंने प्रथम यात्रा आबू से खेतड़ी 7 अगस्त से 27 अक्टूबर, 1891 तक द्वितीय यात्रा मद्रास से खेतड़ी 21 अप्रेल से 10 मई, 1893 तक व तृतीय यात्रा अमेरिका से खेतड़ी 12 से 21 दिसंबर, 1897 तक की थी।

स्वामी विवेकानंद ने स्वयं कहा था, “भारत वर्ष की उन्नति के लिए जो कुछ मैंने थोड़ा बहुत किया है, वह मैं नहीं कर पाता यदि राजा अजीत सिंह मुझे नहीं मिलते।”

स्वामीजी अपने जीवन में तीन बार राजस्थान आए और वे तीनों बार ही खेतड़ी रुके। स्वामी विवेकानंद और राजा अजीत सिंह की प्रथम मुलाकात राजस्थान के माउंट आबू में हुई थी। राजाजी ने स्वामीजी के प्रभावशील, तेजस्वी, व्यक्तित्व और उनकी ओजस्वी वाणी से मुग्ध होकर उनको गुरू-रूप में वरण किया और आग्रहपूर्वक आबू से अपने साथ खेतड़ी लेकर आए। खेतड़ी में उनका बड़ा स्वागत किया और उनके कहने पर ही खेतड़ी में एक प्रयोगशाला की स्थापना की गई।

महल की छत पर एक सूक्ष्मदर्शी यंत्र लगाया गया, जिसमें राजाजी को स्वामीजी नरेश को तारामंडल का अध्ययन कराते थे। यहां पर ही पंडित नारायण शास्त्री से स्वामी विवेकानंद ने पाणिनिभाष्य पढ़ा, जिससे ब्रह्मांड की सर्वप्रभुता व सर्वव्यापी ईश्वरीय श्रद्धा का उन्हें बोध हुआ। इससे उनके ज्ञान के विकास में ‘एक कड़ी जुड़ा’ कह सकते हैं।

10 मई, 1893 को स्वामजी ने मात्र 28 वर्ष की अल्पायु में खेतड़ी से अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। महाराजा अजीत सिंह के आर्थिक सहयोग से ही स्वामी विवेकानंद अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन में शामिल हो वेदांत की पताका फहराकर भारत को विश्व धर्मगुरु का सम्मान दिलाया था।

अमेरिका जाते वक्त खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह ने अपने मुंशी जगमोहन लाल व अन्य कर्मचारियों को बम्बई तक स्वामी जी की यात्रा की व्यवस्था करने के लिए उनके साथ भेजा था। स्वामी जी ने जहाज का साधारण दर्जे का टिकट खरीदा था, जिसे खेतड़ी नरेश ने बदलवाकर उच्च दर्जे का करवाया। एक बार अमेरिका में स्वामी जी का धन खो गया। इस बात का पता जब राजा अजीत सिंह को लगा तो उन्होंने टेलीग्राफ से वहीं तत्काल 150 डॉलर भिजवाए।

इस बात का पता बहुत कम लोगों को है कि स्वामीजी का स्वामी विवेकानंद नाम भी राजा अजीत सिंह ने ही रखा था। इससे पूर्व स्वामीजी का नाम विविदिशानंद था। शिकागो जाने से पूर्व राजा अजीत सिंह ने स्वामीजी से कहा आपका नाम बड़ा कठिन है तथा उसका अर्थ समझ में नहीं आता है तथा नाम का उच्चारण भी सही नहीं है। उसी दिन राजा अजीत सिंह ने उनके सिर पर साफा बांधा व भगवा चोगा पहना कर नया वेश व नया नाम स्वामी विवेकानंद प्रदान किया, जिसे स्वामीजी ने जीवन र्पयत धारण किया। आज भी लोग उन्हें राजा अजीत सिंह द्वारा प्रदत्त स्वामी विवेकानंद नाम से ही जानते हैं।

अमेरिका जाने से पूर्व एक दिन नरेश अजीत सिंह व स्वामीजी फतेहविलास महल में बैठे शास्त्र चर्चा कर रहे थे। तभी राज्य की नर्तकियों ने वहां आकर गायन वादन का अनुरोध किया। इस पर स्वामीजी उठकर जाने लगे तो नर्तकियों की दल नायिका मैनाबाई ने स्वामी जी से आग्रह किया, “स्वामीजी आप भी विराजें मैं यहां भजन सुनाऊंगी।” इस पर स्वामीजी बैठ गए।

नर्तकी मैनाबाई ने महाकवि सूरदास रचित प्रसिद्ध भजन ‘प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो। समदरसी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो।’ सुनाया तो स्वामीजी की आंखों में आंसुओं की धारा बह निकली और उन्होंने उस नर्तकी को ज्ञानदायिनी मां कहकर संबोधित किया और कहा कि ‘आपने आज मेरी आंखें खोल दी हैं।’ इस भजन को सुनकर ही स्वामीजी सन्यासोन्मुखी हुए और जीवन र्पयत सद्भाव से जुड़े रहने का व्रत धारण किया।

शिकागो में हिंदू धर्म की पताका फहराकर स्वामीजी विश्व भ्रमण करते हुए 1897 में जब भारत लौटे तो 17 दिसंबर, 1897 को खेतड़ी आगमन पर खेतड़ी नरेश ने स्वामीजी के सम्मान में 12 मील दूर जाकर उनका स्वागत कर गाजे-बाजे के साथ खेतड़ी लेकर आए। उस वक्त स्वामी जी को सम्मान स्वरूप खेतड़ी दरबार के सभी ओहदेदारों ने दो-दो चांदी के सिक्के भेंट किए व खेतड़ी नरेश ने तीन हजार चांदी के सिक्के भेंटकर दरबार हाल में स्वामी जी का स्वागत किया।

राजा अजीत सिंह ने स्वामी विवेकानंद के स्वागत में पूरे खेतड़ी शहर में चालीस मण (सोलह सौ किलो) देशी घी के दीपक जलवाए थे। इससे भोपालगढ़, फतेह सिंह महल, जयनिवास महल के साथ पूरा शहर जगमगा उठा था।

20 दिसंबर 1897 को खेतड़ी के प्रसिद्ध पन्नालाल शाह तालाब पर प्रीतिभोज देकर स्वामी जी का सम्मान किया गया था। शाही भोज में उस वक्त खेतड़ी ठिकाना के पांच हजार लोगों ने भाग लिया था। उसी समारोह में स्वामी विवेकानंद जी ने खेतड़ी में सार्वजनिक रूप से भाषण दिया, जिसे सुनने हजारों की संख्या में लोग उमड़ पड़े थे।

उस भाषण को सुनने वालों में खेतड़ी नरेश अजीत सिंह के साथ काफी संख्या में विदेशी राजनयिक भी शामिल हुए। स्वामीजी इसी श्रद्धाभक्ति से ओत-प्रोत होकर खेतड़ी को अपना दूसरा घर कहते थे। 21 दिसंबर 1897 को स्वामीजी खेतड़ी से प्रस्थान कर गए। यह स्वामीजी का अंतिम खेतड़ी प्रवास था।

स्वामी विवेकानंद जी राजा अजीत सिंह को समय-समय पर पत्र लिखकर जनहित कार्य जारी रखने की प्रेरणा देते रहते थे। स्वामी विवेकानंद जी के कहने पर ही राजा अजीत सिंह ने खेतड़ी में शिक्षा के प्रसार के लिए जयसिंह स्कूल की स्थापना की थी।

सच में, स्वामीजी और महाराज अजीत सिंह की मित्रता चिरकाल तक इतिहास में कायम रहेगी और इससे देश-दुनिया के करोड़ों लोग प्रेरणा लेते रहेंगे।

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