सेप्टिक टैंक से बेहतर नहीं है ट्रेनों का नया शौचालय : शोध

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थाननई दिल्ली। चेन्नई स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मद्रास (आईआईटी-एम) ने एक अध्ययन में पाया है कि तेरह सौ करोड़ की लागत से पिछले चार साल में ट्रेनों में बनवाए गए शौचालय सेप्टिक टैंक से बेहतर नहीं है। भारतीय रेल की ओर से प्रमुख मेल एक्सप्रेस व मेल ट्रेनों में शौचालय के तौर पर 93,537 जैव पाचक (बायो-डायजेस्टर्स) लगाया है। यह एक प्रकार का लघु-स्तरीय मलजल शोधन संयंत्र है, जिसमें कंपोस्ट चैंबर में जीवाणु मानव मल का पाचन करता है और इस प्रक्रिया में जल व मिथेन बच जाते हैं, जिसमें संक्रमण रहित पानी ट्रैक पर बहा दिया जाता है।

हालांकि सफाई विशेषज्ञों व विविध अध्ययनों, जिसमें रेलवे की ओर से संचालित अध्ययन भी शामिल हैं, ने बताया है कि नय जैव शौचालय अप्रभावी या कुप्रबंधित हैे और पानी की निकासी अपरिष्कृत मल निकासी की तुलना में बेहतर ढंग से नहीं हो पाती है।

आईआईटी के प्रोफेसर लिगी फिलीप, जिनकी अगुआई में यह अध्ययन किया गया है, ने इंडियास्पेंड से बातचीत में कहा, “हमारी जांच में यह पाया गया कि बायो-डायजेस्टर में संग्रहित कार्बनिक पदार्थ (मानव उत्सर्जित मल) का कोई उपचार नहीं होता है।” उन्होंने बताया कि सेप्टिक टैंक की तरह इन बायो-डायजेस्टर्स में मलजल इकट्ठा होता है।

बिल मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की ओर से प्रायोजित आईआईटी मद्रास के इस अध्ययन की रिपोर्ट हाल ही में केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय को सौंपा गया है।

समीक्षा के बावजूद रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) और भारतीय रेल की ओर से संयुक्त रूप से विकसित ये जैव शौचालय दिसंबर 2018 तक एक लाख 20 हजार अतिरिक्त कोचों में लगवाए जाएंगे। इसपर अनुमानित लागत 1,200 करोड़ रुपये आ सकती है। सूचना का अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी के जवाब में रेलवे की ओर से 2 नवंबर को यह जानकारी दी गई।

बायो डायजेस्टर परियोजना पिछली संयुक्त प्रगतिशी गठबंधन की सरकार में शुरू हुई थी। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के तहत इस परियोजना की गति तेज हो गई। रेल मंत्रालय के प्रवक्ता अनिल कुमार सक्सेना ने बताया कि इस परियोजना को 2019 में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती समारोह से पहले समय पर पूरा करने का लक्ष्य है।

2013 में नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (सीएजी) की ओर से जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय रेल में दुनिया में सबसे ज्यादा मल विसर्जित किया जाता है जोकि तकरीबन रोजाना 3,980 टन यानी 497 ट्रक होता है।

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भारतीय रेल की 9,000 पेसेंजर ट्रेनों के 52,000 कोचों में शौचालय हैं। ये ट्रेन रोजाना 65,500 किलोमीटर की यात्रा तय करती हैं और इनमें दो करोड़ चालीस लाख पैसेंजर रोजाना यात्रा करते हैं, जोकि आस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर है।

शौचालय की खुली निकासी को बदलने के लिए भारतीय रेल 1993 से दुनियाभर में इस्तेमाल की जानेवाली प्रौद्योगिकी पर प्रयोग कर रही है। इस दौरान खींचकर निकालने वाले निर्वात शौचालय, जोकि आमतौर पर वायुयान में मिलता है, ‘नियंत्रित निकासी’ वाली शौचालय व्यवस्था (सीडीटीएस), जिसमें ट्रेन जब 30 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार पकड़ती है तभी मल निकास होता है और इस प्रकार स्टेशन साफ रहता है, और ‘जीरो-डिस्चार्ज’ शौचालय का उपयोग किया गया। ‘जीरो-डिस्चार्ज’ शौचालय में मल जमा किया जाता है और एक साथ खाली करके खड्ढे में डाल दिया जाता है जिससे खाद बनती है और पानी का दोबारा उपयोग किया जाता है।

2008 में रेलवे ने ग्वालियर स्थित अनुसंधान व विकास स्थापना (डीआरडीई) की ओर से विकसित बायो-डायजेस्टर मॉडल विकसित लगाने का फैसला लिया।

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जैव-शौचालय की आलोचना पर अधिकारियों का कहना था कि त्रुटियों को सुधारा गया है। सक्सेना ने कहा कि बायो-डायजेस्टर्स से संबंधित मसले छोटे किस्म के हैं और उनको सफलतापूर्वक दूर कर दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि डिजाइन में कुछ परिवर्तन आवश्यक हैं और यह क्रमबद्ध प्रक्रिया है।

डीआरडीई के पूर्व निदेशक लोकेंद्र सिंह अपने अंटार्कटिक अभियान से वापसी में साइक्रोफिलिक बैक्टीरिया अपने साथ लाए थे। यह बैक्टीरिया काफी कम तापमान पर जीवित रहती है। प्रयोग के दौरान यह बैक्टीरिया मानव मल का अपघटन करने में सक्षम पायी गयी, इसलिए रेल बायो-डायजेस्टर्स बनाने में इसका इस्तेमाल किया गया।

जनहित की पत्रकारिता से जुड़ा एक मंच, इंडियास्पेंड डॉट ओआजी, जोकि आंकड़ों से चालित व अलाभकारी संगठन है, के साथ एक व्यवस्था के तहत तैयार किया गया आलेख है। इसमें अभिव्यक्त विचार इंडियास्पेंड का है।

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