‘हिन्दू’… एक ऐसा शब्द जिसका इतिहास किसी रहस्य से कम नहीं

हिन्दू धर्म भारत का सर्वप्रमुख धर्म है, जिसे इसकी प्राचीनता एवं विशालता के कारण ‘सनातन धर्म’ भी कहा जाता है। ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी पैगम्बर या व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित धर्म नहीं है, बल्कि यह प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों, मतमतांतरों, आस्थाओं एवं विश्वासों का समुच्चय है। एक विकासशील धर्म होने के कारण विभिन्न कालों में इसमें नये-नये आयाम जुड़ते गये। लेकिन यह सबसे बड़ा सवाल आज भी कायम है कि आखिर हिन्दू धर्म या यूं कहे कि हिन्दू शब्द की शुरूआत कब हुई?

हिन्दू

शिकागो यूनिवर्सिटी की वेंडी डोनिगर की किताब ‘हिन्दूज : एन आल्टरनेटिव हिस्ट्रीज़’ में लिखा गया है कि हिन्दू धर्म है ही नहीं। इसके अलावा कई अंग्रेज लेखक हैं जिनका अनुसरण हमारे यहां के इतिहासकार करते आए हैं। उन्होंने भी हिन्दूओं के बारे में अनाप शनाप लिखा है।

यही वजह है कि दुष्प्रचार के कारण ही हिन्दू धर्म को लेकर तमाम भ्रानंतियां समाज में व्याप्त हैं। जिनमें एक बात बहुत जोर शोर से प्रचलित की जाती है कि हिन्दू शब्द की उत्पत्ति ही फारसी काल से हुई है। लेकिन ये बात झूठी मालूम पड़ती है जब हम हिंदुओं के पुराणों पर नजर दौड़ाते हैं।

काल में गर्भ में क्या छिपा है ये जानने का एक ही रास्ता है कि हम उस वक्त लिखे गए साहित्य को पढ़े। पुराणों, वेदों में जो लिखा गया है। उनके आधार पर हम देखें तो हिन्दू शब्द सदियों पुराना है और इस उत्पत्ति से सिंधू क्षेत्र या नदी का कोई ताल्लुक नहीं है।

कहां से आया हिन्दू शब्द ?

ऋग्वेद में सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है, सप्त सिन्धु जहां आर्य रहे। पारसी धर्म की स्थापना आर्यों की एक शाखा ने 700 ईसा पूर्व की थी। पारसी धर्म मात्र 700 ईसापूर्व पुराना है और इसको जरथुस्त्र ने संगठित किया।

ऋग्वेद

पारसी धर्म के संस्थापक अत्रि कुल के लोग थे इसके प्रमाण मौजूद हैं। पारसियों को ‘स’ के उच्चारण में दिक्कत थी। पाकिस्तान के सिंध को हिन्द क्या नहीं कहा गया। अगर ऐसा था तो भी सिंधी को हिन्दी क्यों नहीं कहा और संस्कृत को हंस्कृत क्यों नहीं कहा। ‘हिन्दू’ शब्द का जिक्र पारसियों की किताब से पहले की किताबों में भी मिलता है।

विशालाक्ष शिव द्वारा लिखित बार्हस्पत्य शास्त्र यानी बृहस्पतिजी में हिन्दू शब्द मिलता है। वराहमिहिर रचित ‘बृहत्संहिता’ और बृहस्पति आगम ने भी इस धर्म का उल्लेख है। ‘बृहस्पति आगम’ में ‘हिन्दूस्थान’ का उल्लेख है और इसका जिक्र ऋषियों ने किया।

बीते करीब एक हजार साल में अरबों/ईरानियों और अग्रेजों से शासन ने हिन्दू धर्म की तमाम वय्वस्थाओं को ध्वस्त कर दिया और यही वजह है कि हम हिन्दूओं के बारे में जो जातने हैं वो आधा अधूरा है।

‘बृहस्पति आगम’ में एक श्लोक है।

ॐकार मूलमंत्राढ्य: पुनर्जन्म दृढ़ाशय:

गोभक्तो भारतगुरु: हिन्दूर्हिंसनदूषक:।

हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दूरितीरित:।

इसका अर्थ ये है कि

ॐकारजिसका मूल मंत्र है, पुनर्जन्म में जिसकी दृढ़ आस्था है, भारत ने जिसका प्रवर्तन किया है तथा हिंसा की जो निंदा करता है, वह हिन्दू है।

एक और श्लोक है इसमें

हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्।

तं देवनिर्मितं देशं हिन्दूस्थानं प्रचक्षते॥

अर्थात

हिमालय से प्रारंभ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दूस्थान कहलाता है।

इसके पुख्ता प्रमाण है कि ‘हिन्दू’ नाम तुर्क, फारसी, अरबों जैसे आक्रांताओं से पहले से ही चला आ रहा है। एक उदाहरण है कि हिन्दूकुश पर्वतमाला का इतिहास जिससे पता चलता है कि ये नाम हमें विदेशियों ने नहीं दिया है। हिन्दू नाम पूर्णतया भारतीय है और हर भारतीय को इस पर गर्व होना चाहिए।

हिन्दू’ शब्द का मूल निश्चित रूप से वेदादि प्राचीन ग्रंथों में विद्यमान है। उपनिषदों के काल के प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत मध्यकालीन साहित्य में ‘हिन्दू’ मिलता है। ‘हिन्दू’ शब्द प्राचीनकाल से सामान्यजनों की व्यावहारिक भाषा में प्रयुक्त होता रहा है।

ब्राहिस्पत्य, कालिका पुराण, कवि कोश, राम कोश, कोश, मेदिनी कोश, शब्द कल्पद्रुम, मेरूतंत्र, पारिजात हरण नाटक, भविष्य पुराण, अग्निपुराण और वायु पुराणादि संस्कृत ग्रंथों में ‘हिन्दू’ शब्द जाति अर्थ में मिलता है।

लिहाजा ये मान लेना कि हिन्दू शब्द आक्रांताओं की देन है तो ये गलत होगा। आक्रांताओं ने तो हिन्दूओं का नाश करने की साजिशें रची और उसका प्रमाण है कत्लेआम।

भारत में 7वीं सदी के प्रारंभ में आक्रांताओं का आक्रमण शुरु हुआ और इसके साथ ही सदियों तक चलने वाला वो अत्याचार भी शुरू हुआ जिसने हिन्दू धर्म को मिटाने की हर संभव कोशिश की और इसके सर्वनाश की साजिशें रची। आक्रांताओं ने हिन्दूओं की निशानियां मिटाने की भी साजिशें रची।

किसी को खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका ये होता है कि उसके प्रतीकों को खत्म कर दिया जाए। उसके इतिहास को दफ्न कर दिया जाए। विदेशी आक्रांताओं ने यही किया। एक-एक करके पूरे हिन्दू धर्म के जो प्रतीक थे उनको निशाना बनाया गया और तय रणनीति के साथ भारतीय इतिहास को अपने मुताबिक लिखवाने को खेल खेला गया। आपको जानकर हैरानी होगी कि तमाम मुस्लिम और तुर्क आक्रांताओं ने अपनी सभ्यता हिन्दूओं के ऊपर थोप दी।

हिन्दुओं के सर्वनाश की साजिश

भारत में 7वीं सदी के प्रारंभ में मुस्लिम आक्रांताओं का आक्रमण शुरु हुआ। आक्रांताओं ने हिन्दूओं को बेरहमी लूटने के लिए भारत पर आक्रमण किए। 7वीं से लेकर 16वीं सदी तक हिन्दू, जैन और बौद्ध मंदिरों को तोड़ा और लूटा गया। 10 सदियों तक भारतीय अस्मिता की पहचान और सम्मान को कुचला गया।

इसमें कोई दोराय नहीं है कि विदेशी आक्रमणकारियों ने हर संभव कोशिश कि हिन्दू धर्म के निशान मिट जाए क्योंकि जिस जमीन पर हिन्दूओं को राज था वहां संपन्नता थी। यही बात आक्रांताओं को लुभाती और ललचाती थी। इसलिए आक्रमणकारियों ने सबसे पहले हिन्दूओं के आस्था के केंद्रो को नष्ट करने का फैसला किया।

इतिहास को अलग पलटें तो पाएंगे कि 11वीं से 15वीं सदी तक मंदिरों का जिक्र और उसके विध्वंस की बातें खूब मिलती हैं। मोहम्मद तुगलक जो 1325 में हुआ उसके समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब ‘विविध कल्पतीर्थ’ में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देवक्षेत्र कहा जाता था।

लेखक फ्यूरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर, मस्जिद में तब्दील हुए थे। 1460 में वाचस्पति ने अपनी किताब ‘तीर्थ चिंतामणि’ में लिखा है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है। तो ये बात स्पष्ट हो जाती है कि काशी पर आक्रांताओं की सबसे ज्यादा नजर रही क्योंकि ये हिन्दूओं को पवित्र तीर्थ था।

अयोध्या विवाद का मूल 1528 की घटना में है, जबकि 10 हजार से ज्यादा हिन्दू शहीद हो गए थे। सच्चाई ये है कि फैसला 1528 की घटना का होना है, न कि 1949 या 1992 की घटना का। 1949 और 1992 की घटनाएं 1528 की घटना से पैदा हुईं।

विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण से पहले हिन्दूस्तान में इतनी दौलत थी कि यहां की संपन्नता दुनिया के लिए एक तिलिस्म थी और शायद यही वजह थी कि हिन्दूओं की सम्पन्नता ने विदेशियों को इस घर्म के सर्वनाश का सपना दिया।

भारतवर्ष में तमाम ऐसे मंदिर थे जिनमें अकूत दौलत थी और इन मंदिरों से हिन्दूओं की अकाट्य आस्था थी। लिहाजा मुस्लिम आक्रांताओं ने इन्हें चुन-चुन कर लूटना शुरू कर दिया और उन्हीं मंदिर में से था सोमनाथ मंदिर।

सोमनाथ मंदिर

सोमनाथ नामक विश्वप्रसिद्ध मंदिर में 12 ज्योतिर्लिंगों से एक स्थापित है। पावन प्रभास क्षेत्र में स्थित इस सोमनाथ-ज्योतिर्लिंग का जिक्र वेदों में है। महाभारत, श्रीमद्भागवत और स्कंद पुराणादि में मंदिर की महिमा विस्तार से बताई गई है। चन्द्रदेव का एक नाम सोम भी है, उन्होंने भगवान शिव की यहां पर तपस्या की है।

मंदिर का पुनर्निर्माण 649 ईस्वी में वैल्लभी के मैत्रिक राजाओं ने किया। पहली बार इस मंदिर को 725 ईस्वी में सिन्ध के मुस्लिम सूबेदार अल जुनैद ने तुड़वा दिया था। 815 ईस्वी में प्रतिहार राजा नागभट्ट ने सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया।

महमूद गजनवी ने 1024 में 5,000 साथियों के साथ सोमनाथ मंदिर पर हमला किया। गजनवी ने सोमनाथ की संपत्ति लूटी और मंदिर को तहस नहस कर दिया। मंदिर की रक्षा के लिए निहत्‍थे हजारों लोग मारा गया और लूटपाट की गई।

गुजरात के राजा भीमदेव और मालवा के राजा भोज ने सोमनाथ का पुनर्निर्माण कराया। 1093 में सिद्धराज जयसिंह ने मंदिर निर्माण में सहयोग दिया। 1168 में विजयेश्वर कुमारपाल और सौराष्ट्र के राजा खंगार ने सोमनाथ मंदिर को बनवाया। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने सोमनाथ मंदिर को दोबारा तोड़कर इसे लूट लिया।

1395 में गुजरात के सुल्तान मुजफ्‍फरशाह ने मंदिर को फिर से तुड़वा दिया और लूट लिया। 1412 में सुल्तान मुजफ्‍फरशाह के बेटे अहमद शाह ने भी सोमनाथ को तोड़ा। मुस्लिम क्रूर बादशाह औरंगजेब के काल में सोमनाथ मंदिर को दो बार तोड़ा गया।

औरंगजेब ने 1665 और 1706 ईस्वी में इस मंदिर को तुड़वाया और कत्लेआम किया। 1783 में इंदौर की रानी अहिल्याबाई ने पूजा के लिए सोमनाथ मंदिर बनवाया गया। 1950 में 6 बार टूटने के बाद 7वीं बार मंदिर को कैलाश महामेरू प्रासाद शैली में बनाया गया।

गुजरात के पाटन जिले के सिद्धपुर में रुद्र महालय स्थित है। सरस्वती नदी के तट पर बसा सिद्धपुर एक प्राचीन नगर है। इस मंदिर को 943 ईस्वी में मूलाराज सोलंकी ने बनवाना प्रारंभ किया था। 1140 ईस्वी में सिद्धराज जयसिंह के काल में निर्माण कार्य पूर्ण हुआ।

1410-1444 के दौरान अलाउद्दीन खिलजी ने इसका कई बार विध्वंस करवाया। अहमद शाह ने इसे तुड़वाया और आततायी आक्रमणकारियों ने 3 बार इसे तोड़ा और लूटा। मंदिर के एक भाग में मस्जिद बनाई और एक भाग को आदिलगंज का रूप दिया।

वृंदावन नगर में वैष्णव संप्रदाय का मदन मोहन नामक मंदिर स्थित है। 1590 ई। से 1627 ई। के बीच मुल्तान के रामदास खत्री या कपूरी ने इसे बनवाया। भगवान मदन गोपाल की मूल प्रतिमा आज इस मंदिर में नहीं है। मुगल शासन के दौरान इसे राजस्थान स्थानांतरित कर दिया गया था। मंदिर को औरंगजेब काल में कई बार तोड़ा और लूटा गया। 1819 ईस्वी में नंदलाल वासु ने इसे दोबारा बनवाया था।

मीनाक्षी मंदिर भगवान शिव और देवी पार्वती के मीनाक्षी अवतार को समर्पित है। यह मंदिर 2,500 साल पुराने शहर मदुराई या मदुरै का दिल और जीवनरेखा है। राजा इन्द्र ने इसकी स्थापना कि हिन्दू संत थिरुग्ननासम्बंदर ने 7वीं सदी में इसका जिक्र किया। पांडियन राजा मंदिर निर्माण के लिए लोगों से कर (टैक्स) की वसूली करते थे। मंदिर का निर्माण 6ठी शताब्दी में कुमारी कंदम के उत्तरजीवी ने किया था। 14वीं शताब्दी में मुगल मुस्लिम कमांडर मलिक काफूर ने मंदिर को तोड़ा और लूटा। 1623 और 1655 ईस्वी में विश्वनाथ नायकर ने मंदिर को पुनर्निर्मित करवाया।

मीनाक्षी मंदिर

भारतीय इतिहास के ऐसे कई रहस्य अभी उजागर होना बाकी हैं, जो पढ़ाए नहीं जाते या जिनके बारे में इतिहासकारों में मतभेद हैं। दरअसल, भारत के इतिहास को फिर से लिखे जाने की जरूरत है, क्योंकि वर्तमान में जो इतिहास पढ़ाया जाता है वो या तो अधूरा है या वो सत्य से बहुत दूर है।

यह भी कहा जा सकता है कि वो एकतरफा लिखा गया इतिहास है। हम यह नहीं कह रहे हैं कि हम जो बता रहे हैं वह सत्य है लेकिन हम ये भी नहीं कह रहे जो हमें बताया गया है वो सच है। इसलिए हिन्दू क्या है इसे समझने के लिए व्यापक अध्ययन और इस धर्म की नींव को समझने की जरूरत है, नहीं तो हम सिर्फ आक्रांताओं के राज में लिखा गया ही पढ़कर अपने मानसिकता तय करते रहेंगे।

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