अगर आप ने नहीं किया ये फैसला तो कभी नहीं सुलझेगा राम जन्मभूमि विवाद

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने सितंबर में दिल्ली में कई भाषण दिए थे.

इन भाषणों से प्रभावित होकर मीडिया के एक तबके ने ये तक कहा कि आरएसएस बदल गया है. इस आंकलन ने आरएसएस की मूल राजनीतिक स्थिति को नज़रअंदाज़ किया.

लेकिन फिर आता है दशहरा पर भागवत का दिया भाषण. भागवत ने साफ़ किया कि राम मंदिर के मुद्दे पर आरएसएस अपने स्टैंड पर कायम है.

इसके बाद से लेकर अब तक राम मंदिर एक बार फिर ख़बरों में है. अब देश में राम मंदिर के मुद्दे पर कॉन्फ्रेंस, रैली और कई कार्यक्रम हो रहे हैं.

आने वाले दिनों में राम मंदिर के मुद्दे पर कई कार्यक्रम अयोध्या में भी देखने को मिलेंगे.

ऐसे में सवाल ये है कि क्या देश में फिर ऐसे हालात पैदा हो रहे हैं, जो अब से क़रीब 30 साल पहले थे? अगर ऐसा हुआ तो इसके नतीजे क्या होंगे?

अगर अतीत की ओर लौटते हैं तो कुछ सवालों के जवाब खोजना दिलचस्प हो सकता है.

मसलन, अयोध्या मुद्दे पर इस दौर के नए आडवाणी और वाजपेयी कौन होंगे? इस मुद्दे से होने वाले फ़ायदों को कौन भुनाएगा?

सबसे अहम बात ये कि अयोध्या के मुद्दे पर भारतीय राजनीति किस ओर बढ़ेगी?

30 साल पहले राम जन्म भूमि आंदोलन के नेतृत्व का ज़िम्मा आडवाणी के कंधों पर था.

आडवाणी के नेतृत्व में कारसेवा, रथ यात्राएं पूरे देश में निकाली गईं, जिनका मकसद हिंदुओं को राम मंदिर के मुद्दे पर एकजुट करना रहा.

नतीजा ये हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना करते हुए अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई.

1992 के दिसंबर महीने की छह तारीख़. अयोध्या में बाबरी विध्वंस के बाद राम जन्मभूमि आंदोलन की रफ़्तार कम हो गई.

इसकी एक वजह ये रही कि इस आंदोलन से जो राजनीतिक फ़ायदा मिल सकता था, वो बीजेपी उठा चुकी थी.

दूसरा इस आंदोलन के बावजूद बीजेपी को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हुआ था. तब ये तय हुआ दूसरे दलों से गठबंधन करने के लिए विवादित मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल देना चाहिए.

तीसरा ये कि भले ही छोटे स्तर पर हिंदू गौरव को सराहा गया लेकिन बाबरी विध्वंस के बाद आम लोग खुलकर सामने नहीं आए. मीडिया ने भी बाबरी विध्वंस की जमकर आलोचना की.

इसके बावजूद अयोध्या की यादों को बचाए रखने की कोशिशें हुईं. फिर चाहे नींव पूजन समारोह हो या मंदिर निर्माण के लिए योजना बनाना हो. हर साल छह दिसंबर को मनाया जाना वाला जश्न इसी कड़ी का अहम हिस्सा है.

राम मंदिर पर कोर्ट की तारीख़ें इस मुद्दे की यादें लोगों में बनाए रखती हैं.

लिब्राहन कमीशन को इस मामले की जांच सौंपी गई थी. ये जांच लंबी चली कि ये मुद्दा आए रोज़ ख़बरों में बना रहा.

अब जब 2014 से केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, तब आरएसएस एक बार फिर राम मंदिर का मुद्दा उठाकर विवाद क्यों खड़ा करना चाह रहा है?

इस सवाल का एक मासूम जवाब ये हो सकता है कि आरएसएस और बीजेपी (ख़ासकर मोदी) के बीच तनातनी का माहौल है. ऐसे में ये विवाद मोदी को संकट में डालने के लिए है.

हो सकता है कि आरएसएस और बीजेपी के बीच मतभेद हों. लेकिन ये जवाब पर्याप्त नहीं है.

इस बार वो अपने दम पर सत्ता में हैं. ऐसे में ये बात असंभव है कि मोदी और आरएसएस अंदरूनी मतभेद के लिए एक-दूसरे के लिए संकट खड़ा करेंगे.

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कुछ लोग इस सवाल के दूसरे पहलू की ओर ध्यान ले जाते हैं. वो ये कि बीजेपी और आरएसएस सत्ता में बने रहने के दौरान ही इस मसले को सुलझा लेना चाहते हैं ताकि राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ़ हो सके.

कुछ भोले भाले आरएसएस समर्थक ज़रूर ये सोचते होंगे कि केंद्र की ताक़तवर मोदी सरकार आसानी से राम मंदिर बना सकती है. लेकिन ये हक़ीक़त नहीं है.

ये संभव ही नहीं है कि इस मुद्दे को इतनी आसानी से सुलझा लिया जाए. ख़ासकर तब जब राम मंदिर से जुड़े कई केसों पर सुनवाई बाकी है.

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