मुहर्रम इस्लाम की एक नई शुरुआत, जानिए फिर क्यों मनाते हैं मातम ?

मुहर्रम का मातमनई दिल्ली। आज पूरे देश भर में मुहर्रम का मातम मनाया जा रहा है। आइए आज हम आपको मुहर्रम के बारे में कुछ ख़ास जानकारी बताते हैं। दरअसल, मुहर्रम एक महीना है और इसी महीने से इस्लामिक कैलेंडर की शुरुआत होती है। आज के 1400 साल पहले इस महीने की 10 तारीख को अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद के छोटे नवासे इमाम हुसैन को उनके परिवार और 72 अनुयायियों समेत मार दिया गया था। ये ज़ुल्म 1400 साल पहले करबला (ईराक के शहर) में हुआ। मुहर्रम महीने में हर साल उन्हीं शहीदों की याद में मातम मनाया जाता है।

आपको बता दें कि इस्लाम का उदय, मदीना (सऊदी अरब का शहर) से हुआ। मदीना से 1132 किलोमीटर दूर ‘शाम’ (सीरिया का शहर) में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया की मौत के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद, शाम की गद्दी पर बैठा। यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और वहां के लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव था।

मोहम्मद का घराना यजीद के मंसूबों को अच्छी तरीके से समझता था। हुसैन ये जानते थे कि यजीद के लिए इस्लामिक मूल्यों की कोई कीमत नहीं है। इसलिए उन्होंने यजीद के शासन को इनकार कर दिया और नाना का शहर मदीना छोड़ देने का फैसला लिया। ताकि वहां शांति बनी रहे।

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हुसैन, मदीना छोड़कर परिवार और कुछ अन्य लोगों के साथ इराक की तरफ जा ही रहे थे कि करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। यजीद ने हुसैन के सामने फिर कुछ शर्तें रखीं लेकिन हुसैन ने मानने से फिर से इनकार कर दिया। जिसके बाद यजीद ने जंग करने की बात रखी। इस दौरान इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी (सीरिया) के किनारे तम्बू लगाकर ठहरे।

यजीदी फौज ने हुसैन के तम्बुओं को नदी किनारे से हटवा दिया। वह मुहर्रम की पहली तारीख थी, और गर्मी का वक्त था। आज भी इराक में (मई) गर्मियों में दिन के वक्त सामान्य तापमान 50 डिग्री से ज्यादा होता है।

हुसैन जंग के इरादे से नहीं चले थे। उनके काफिले में केवल 72 लोग थे जिसमें छह माह के बेटे समेत उनका परिवार भी शामिल था। सात मुहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और पानी था, वह खत्म हो चुका था। इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। 7 से 10 मुहर्रम तक (तीन दिन तक) इमाम हुसैन उनके परिवार के सदस्य और उनके साथी भूखे-प्यासे रहे। 10 मुहर्रम तक हुसैन के काफिले का बच्चा-बच्चा भूख-प्यास से तड़प उठा, तो उन्होंने मजबूरी में जंग के लिए हामी भरी।

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10 मुहर्रम को हुसैन की 72 लोगों की फौज के लोग एक-एक करके मैदान-ए-जंग में लड़ने गए। जब हुसैन के सारे साथी मारे जा चुके थे, तब दोपहर की नमाज़ के बाद इमाम हुसैन खुद गए और वे भी कत्ल कर दिए गए। इस जंग में हुसैन का एक बेटा जैनुल आबेदीन जिंदा बचा। 10 मुहर्रम को वे बीमार थे, मुहम्मद साहब के परिवार की नई पीढ़ी के इकलौते मर्द वही ज़िंदा बचे थे। इसी कुर्बानी की याद में मुहर्रम की महीने में ग़म मनाया जाता है। यजीद ने हुसैन के परिवार की औरतों को भी गिरफ्तार किया।

यजीद ने खुद को विजेता बताते हुए हुसैन के लुटे हुए काफिले को देखने वालों को यह बताया कि यह हश्र उन लोगों है जो यजीद के शासन के खिलाफ गए। यजीद ने मुहमम्द के घर की औरतों को कैदखाने में रखा, जहां हुसैन की मासूम बच्ची सकीना की (सीरिया) कैदखाने में ही मौत हो गई। बहरहाल इस वाकये को 1400 से ज्यादा साल बीत चुके हैं। कहा जाता है कि ‘इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद’।

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