लुप्त हो रही है प्याऊ की परम्परा

Gसमाज में जैसे-जैसे पश्चिम की भोगवादी प्रवृत्ति ने अपने पैर जमाने शुरू किये, हम पश्चिम की चकाचौंध में अपनी संस्कृति और परम्पराओं से दूर होने लगे और जो काम अतीत में परोपकार की भावना से पुण्य कमाने के लिये किया जाता था वही काम अब पैसे कमाने के लालच में पूर्णतया व्यापार बना दिया गया।
सचमुच, अब वो जमाने सिर्फ यादों के दायरे में कैद होकर रह गये हैं जब जेठ की भीषण लू, तपती धरती और चिलचिलाती दोपहरी में सवारियों को ढोते हुए पसीने से तरबतर बेहाल कोई रिक्शेवाला, माल ढोने वाले ठेले पर लदे बोझ को घसीटने के लिये जानवर की जगह खुद जुटे मजदूर या प्यास से बुरी तरह बेहाल कहीं दूर से आते राहगीरों की निगाहें पानी को तलाशती थीं तो थोड़ी-थोड़ी दूर पर प्यास बुझाने के लिये सज्जन व्यक्तियों द्वारा लगवाये गये प्याऊ से शीतल जल पीने को उन्हें मिल जाता था। यही नहीं बीते वक्तों में पुण्य कमाने की आस इतनी प्रबल थी कि सज्जन व्यक्तियों द्वारा भूखे प्यासे राहगीरों के लिये चन्द टुकड़े मीठे बताशे या गुड़ चने की व्यवस्था भी की जाती थी जिसे खाकर ऊपर से शीतल जल पीकर तृप्त व्यक्ति मनो आशीष और दुआएं देता था।
वास्तव में देखा जाये तो प्याऊ लगाने-लगवाने की शुरूआत किसने की, ऐतिहासिक सन्दर्भों में कुछ पता नहीं चलता। हां, राजे रजवाड़े के दौर में, जब यातायात के इतने सर्व सुलभ साधन उपलब्ध नहीं थे और ज्यादातर यात्रा मौसम के थपेड़ों के साथ पैदल ही तय करनी पड़ती थी तब राजा महाराजाओं ने अपने राज्य की जनता और राज्य में आने जाने वाले यात्रियों की सुविधा के लिये दूर दराज के क्षेत्रों तक के मार्ग में स्थान-स्थान पर आराम करने के लिए घने छायादार वृक्ष लगवाने के साथ ही तमाम प्याऊ भी लगवाये, जहां प्यास से व्याकुल यात्री दो घड़ी ठहरकर, गुड़ चना खा शीतल जल पीकर अपनी आगे की यात्रा शुरू करते थे।
वक्त बीतने के साथ-साथ जैसे-जैसे जमाने ने करवट ली और समाज के आधुनिकीकरण ने कम्प्यूटर क्रांति के युग में कदम रखा, पश्चिम की आयातित संस्कृति और स्वार्थी प्रवृत्ति के असर के चलते दो शहरों के मार्ग में और शहरों में गली मोहल्ले के नुक्कड़ों पर लगने वाली प्याऊ तो खत्म ही हो गयी, नगरों, कस्बों और गांवों में भी प्याऊ के दर्शन दुर्लभ हो गये। साथ ही प्यासे व्यक्ति को पानी पिलाकर पुण्य कमाने की भारतीय संस्कृति की अवधारणा दिलों से लुप्त होने लगी। जीवन में धन के प्रति बढ़ती लोलुपता के चलते यह तक देखने में आने लगा कि मध्यम वर्ग के परिवार में उत्तर प्रदेश के आखिरी पड़ाव पर खड़े किसी बुजुर्ग ने प्याऊ लगवाने का प्रयास किया तो बुजुर्ग को परिवार के सदस्यों का ही विरोध या आक्रोश झेलना पड़ा। बुजुर्ग यदि खुद कमाता है या उसके पास पैसा है तब तो उसने प्याऊ लगा लिया अन्यथा इस अनुत्पादक और घाटे के सौदे में उसके लड़कों ने ही धन लगाने से इंकार कर दिया।
समय परिवर्तन के साथ-साथ परोपकार की भावना का स्थान फैशन और दिखावे ने ले लिया। गर्मियों में जब स्कूलों की छुट्टियां होती हैं और बच्चे क्या करें की उधेड़बुन में सारा दिन यूं ही बीतने लगा और पहाड़ जैसे उमस भरे दिन काटे न कटें तो समय काटने के लिये शहरियों ने एक दिन के अस्थायी प्याऊ लगाने शुरू कर दिये, पिकनिक मनाने की तर्ज पर कि कल क्या कर रहे हो यार? कुछ नहीं। तो चलो, कल प्याऊ लगा लेते हैं दिन कट जायेगा। पर ये भी एक सच है कि शहरियों में एक दिनी निःशुल्क प्याऊ लगाने व चलाने में खासा उत्साह देखने में आया। गर्मी की छुट्टियों का सदुपयोग करते हुए बच्चों ने भी इस नये खेल में खूब हाथ बंटाया।
लेकिन सच कहा जाये तो ये हकीकत है कि सिखों ने अवश्य प्याऊ को श्रेष्ठ स्वरूप दिया है। आज भी शहरों कस्बों में जब उनके धर्म गुरूओं की जन्मतिथि व पुण्यतिथि मनायी जाती है सिख अस्थाई प्याऊ लगाकर सिर्फ सादा पानी नहीं पिलाते, अपितु भीषण महंगाई के इस दौर में भी मनो सिल्लियां बर्फ और बोरे के बोरे शक्कर, पानी में खपा देते हैं और राहगीरों को शक्कर युक्त मीठा शीतल जल पिलाते हैं।
यकीनन सिखों ने अपने धर्म गुरूओं की जन्मतिथि आदि मनाने का उन लोगों की वनिस्वत एक रचनात्मक रास्ता अपनाया है जो जन्मतिथि पर नाचते गाते हैं व पुण्यतिथि सभाएं और बैठकें आयोजित करते हैं। लकिन यहां यह विचारणीय है कि गर्मी के इस मौसम मंे राहगीरों को सिर्फ एक दिन ही तो प्यास नहीं लगती?
दूसरी ओर जीवन के प्रति बदलते नजरिये और मानसिकता में बदलाव के कारण प्याऊ का स्थान ठेलों पर लदे बड़े घड़ों या पहियेदार पानी की टंकियों ने ले लिया और चौराहों, नुक्कड़ों पर प्याऊ के बदले ये ही पानी की टंकियां नजर आने लगीं जिन पर ठंडा पानी पिलाने का प्रति गिलास के हिसाब से दाम वसूला जाने लगा या फिर रेलवे स्टेशन बस अड्डे से लेकर चौराहों पान की दुकानों से लेकर गली-मोहल्लों में नुक्कड़ों पर पेप्सी व कोक की ठंडी बोलतें आ गयीं फिर पानी से भला कौन प्यास बुझाए और जिसे प्यास बुझाने के लिये पानी ही पीना है उसके लिये बिसलरी की बंद बोतलें हाजिर हो गयी हैं यानि कि पैसा फेंक कर तमाशा देखो अर्थात आपकी जेब में पैसा है तो जी भरकर ठंडा पानी या कुछ भी पियो। तो ऐसे हालातों में भला प्याऊ को पूछे भी कौन?
जहां तक स्वच्छता व शुद्धता की बात है निःशुल्क प्याऊ में जहां पीने योग्य पानी की शुद्धता का पूरा ख्याल रखा जाता था वहीं इन टंकियों में एकत्रित पानी में स्वच्छता व शुद्धता पूरी तरह नदारद रहती है। इन टंकियों के भीतर की गदंगी का ये आलम होता है कि यदि पानी पीने से पूर्व इन टंकियों के अंदरूनी हिस्से में झांका जाये तो उसमें बालिश्तों काई, जाले, गंदगी व नंगी आंखों से दिखते गंभीर, जानलेवा बीमारियों के वाहक कीड़े देखकर उबकाई आ जाती है बीमारियों को बाकायदा दावत देती ये पानी की टंकियां महीनों साफ नहीं की जातीं बल्कि कई बार तो पूरी गर्मियों के बीतने के उपरांत ही इनके भीतरी हिस्से की सफाई की जाती है।
इस बारे में कहने पर एक टंकी मालिक ने इस लेखक को बताया कि जितनी देर में टंकी की सफाई करेंगे उतनी देर में तो सैकड़ों गिलास पानी हम बेच लेंगे और फिर टंकी के भीतर झांकता ही कौन है जो उसे कुछ दिखे। बहरहाल गौरतलब है कि गत वर्षों में इन्हीं पानी की टंकियों से पानी के रूप में मौत बेची गयी थी और संक्रमित व प्रदूषित पानी पीने के कारण राजधानी व आसपास के हजारों लोग असमय ही काल का ग्रास बन गये थे वहीं हजारों लोग महीनों बिस्तर पर पड़े रहते थे। प्रदूषित पानी से उत्पन्न संक्रात्मक रोगों ने अपनी पूरी जलालता से राजधानी समेत आसपास के जिलों को भी अपनी चपेट में ले लिया था।
इन हालातों में प्याऊ की आवश्यकता व सार्थकता से कोई भी इंकार नहीं कर सकता लिहाजा गांवों-कस्बों व मार्गों में प्याऊ सरीखे जनहितकारी कार्य की स्थापना के लिये सरकार की ओर से तो प्रयास किये जाने की महती आवश्यकता है ही, समाज सुधारकों और पूंजीपतियों को भी इस दिशा में प्रयत्न करना चाहिए ताकि समाज में परोपकार की भावना का लोप न हो और प्यासे को पानी पिलाने की भारतीय संस्कृति व परंपरा अक्षुण्ण रहे। (हिफी)

LIVE TV