सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में निजी भागीदारी की दरकार : अरविंद

नई दिल्ली| पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम का कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) की विशाल गैर-निष्पादित परिसंपत्ति(एनपीए) या खराब ऋण के संकट के समाधान के लिए आधारभूत सुधार की जरूरत है, जिसमें निजी भागीदारी को अनुमति देने की दरकार है।
बैंकों में निजी भागीदारी
सुब्रह्मण्यम ने अपनी नई किताब ‘ऑफ कांसल : द चैलेंजेज ऑफ मोदी-जेटली इकोनॉमी’ में एनपीए की समस्या के समाधान में सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के बीच बड़ी संविदा की विवेचना की है। बैंकों का एनपीए बढ़कर 13 लाख करोड़ रुपये हो जाने से तरलता का संकट पैदा होने से केंद्र सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच मतभेद पैदा हुआ।

पेंगुइन से प्रकाशित उनकी इस किताब का जल्द ही विमोचन होने वाला है।

उन्होंने किताब में लिखा है-“पीएसबी में निजी क्षेत्र को बड़ी भागीदारी की अनुमति प्रदान करके उनमें आधारभूत सुधार को सुगम बनाया जा सकता है।”

उनका कहना है कि इसके बदले में आरबीआई पीएसबी के पुनर्पूजीकरण के लिए संसाधन बढ़ाने में अपने पूंजी आधिक्य का उपयोग करेगा और किसी नई होल्डिंग कंपनी का पूंजीकरण करेगा।

सरकार का आरबीआई के साथ चार मसलों को लेकर मतभेद है। सरकार साख समाप्त होने के किसी जोखिम को दूर करने के लिए तरलता की मदद, बैंकों के लिए पूंजी की जरूरतों में छूट, जमा हुए एनपीए की समस्या से जूझ रहे बैंकों के लिए त्वरित सुधार कार्य (पीसीए), नियमों में छूट और सूक्ष्म, लघु और मध्यम कोटि के उद्यमियों के लिए सहायता चाहती थी।

तरलता का मुख्य मसला यह था कि सरकार चाहती थी कि आरबीआई आर्थिक पूंजी रूपरेखा में बदलाव लाकर अपना सुरक्षित अधिशेष हस्तांतरित करे।

सुब्रह्मण्यम कहते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ऊपर आरबीआई को अधिक निगरानी की शक्ति प्रदान कर आगे विनियामक/पर्यवेक्षण संबंधी सुधार हुआ है।
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बैंकिंग क्षेत्र के विवाद में सामने आए विजय माल्या, नीरव मोदी, चंदा कोचर, राणा कपूर और रवि पार्थसारथी जैसे कुछ प्रमुख नामों का जिक्र करते हुए पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए) ने कहा, “इन नामावली को सुनकर भारत के दृष्टिवैषम्य पूंजीवाद की याद ताजा हो जाती है।”

उन्होंने शेक्सपियर के कथन का जिक्र करते हुए कहा है कि दृष्टिवैषम्य पूंजीवाद को लंबे समय से फलने-फूलने देने से भारतीय बैंकिंग क्षेत्र की मौजूदा स्थिति में थोड़ी खराब हो गई है।
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उन्होंने कहा कि आरबीआई की पीसीए रूपरेखा जून 2015 में शुरू की गई गई, जिसके माध्यम से एनपीए संकट को स्वीकार किया गया और इसके बाद वित्तीय संस्थानों द्वारा कर्ज पर प्रतिबंध लगाए गए।

इसके अलावा, ऋणशोधन अक्षमता व दिवाला संहिता लागू होने पर परिसंपत्ति समाधान पक्रिया में तेजी आई।

उन्होंने कहा कि सरकार को आरबीआई को कमजोर बैंकों के लिए पीसीए रूपरेखा पर अमल करने की अनुमति देनी चाहिए।

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