प्रेरक प्रसंग- क्या है जीवन जीने की कला…

एक संत ने एक विश्व-विद्यालय आरंभ किया। इस विद्यालय का प्रमुख उद्देश्य था ऐसे संस्कारी युवक-युवतियों का निर्माण जो समाज के विकास में सहभागी बन सकें।
प्रेरक प्रसंग
एक दिन उन्होंने अपने विद्यालय में एक वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया। जिसका विषय था – “जीवों पर दया एवं प्राणिमात्र की सेवा।”
निर्धारित तिथि को तयशुदा वक्त पर विद्यालय के कॉन्फ्रेंस हॉल में प्रतियोगिता आरंभ हुई।किसी छात्र ने सेवा के लिए संसाधनों की महत्ता पर बल देते हुए कहा कि हम दूसरों की तभीसेवा कर सकते हैं जब हमारे पास उसके लिए पर्याप्त संसाधन हों। वहीं कुछ छात्रों की यह भीराय थी कि सेवा के लिए संसाधन नहींभावना का होना जरूरी है।
इस तरह तमाम प्रतिभागियों ने सेवा के विषय में शानदार भाषण दिए। आखिर में जब पुरस्कारदेने का समय आया तो संत ने एक ऐसे विद्यार्थी को चुनाजो मंच पर बोलने के लिए ही नहींआया था।
यह देखकर अन्य विद्यार्थियों और कुछ शैक्षिक सदस्यों में रोष के स्वर उठने लगे। संत ने सबको शांत कराते हुए बोले, ‘प्यारे मित्रो  विद्यार्थियोआप सबको शिकायत है कि मैंने ऐसेविद्यार्थी को क्यों चुनाजो प्रतियोगिता में सम्मिलित ही नहीं हुआ था। दरअसलमैं जाननाचाहता था कि हमारे विद्यार्थियों में कौन सेवाभाव को सबसे बेहतर ढंग से समझता है।
इसीलिए मैंने प्रतियोगिता स्थल के द्वार पर एक घायल बिल्ली को रख दिया था। आप सब उसीद्वार से अंदर आएपर किसी ने भी उस बिल्ली की ओर आंख उठाकर नहीं देखा। यह अकेलाप्रतिभागी थाजिसने वहां रुक कर उसका उपचार किया और उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़आया। सेवासहायता डिबेट का विषय नहींजीवन जीने की कला है।
जो अपने आचरण से शिक्षा देने का साहस  रखता होउसके वक्तव्य कितने भी प्रभावी क्यों  होंवह पुरस्कार पाने के योग्य नहीं है।
https://www.youtube.com/watch?v=7QTF7VFhz9c
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