नीतीश का मास्टर स्ट्रोक, एक झटके में सभी ‘क्लीन बोल्ड’… तेजस्वी पर साध ली चुप्पी और दे डाला इस्तीफ़ा
पटना। बिहार के राजनीतिक गालियारे में उस समय भूचाल आ गया, जब आरजेडी विधायक दल की बैठक खत्म होने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसी के साथ ही 20 महीने से चल रही महागठबंधन (जेडीयू-कांग्रेस-आरजेडी) की सरकार का अंत हो गया। नीतीश ने राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी से मिलकर उन्हें अपना इस्तीफा सौंपा। इस्तीफा देने के लिए बाद नीतीश कुमार ने मीडिया से मुखातिब होकर साफ कहा कि ‘महागठबंधन के मौजूदा हालातों के चलते अब मेरे लिए सरकार चलाना मुश्किल हो रहा था।
नीतीश के इस्तीफे का खेल… झटके में बदले सभी समीकरण, कयासों के बीच बनती-बिगड़ती संभावनाएं
वह पिछले कई महीनों से भाजपा से नजदीकी के संकेत दे रहे हैं। 2014 में जिस अंदाज़ में उन्होंने नरेंद्र मोदी का विरोध किया था और उसी नाम पर एनडीए से नाता तोड़ दिया था, उसी तेवर के साथ आज नीतीश ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
बिहार में सरकार बनाते समय नितीश ने ये नहीं सोचा था जिन कठिनाईयों के साथ उन्होंने गठबंधन किया था वही दावं उल्टा पड़ा। क्योकि जेडीयू से ज्यादा राजद फायदा उठा ले गया। नीतीश सीएम तो बन गए पर लालू का संख्याबल लगातार उन्हें दबाता रहा।
पटना के राजनीतिक के बड़े खिलाड़ी राजद सुप्रीमो लालूप्रसाद सरकार में प्रत्यक्ष रूप से ना रह कर भी अपने बेटों से चलवाने लगे जैसा वह खुद सीएम रहते हुए चलाते थे। ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिए इलाकों पर दावेदारी ठोंकी जाने लगी। मंत्री-विधायक उसी अंदाज में कारोबारियों और व्यापारियों को धमकाने लगे।
नीतीश ने शराबबंदी की तो भी राज्य में सफ़ेदपोश तरीके बदस्तूर जारी रही। तमाम उथल-पुथल के बीच नीतीश को लगने लगा कही यह गठबंधन उनकी छवि पर बहुत भारी पड़ेगा। पर सवाल यह है कि वह कर भी क्या सकते थें? लोकतंत्र में संख्या बल ही सबसे अहम है। सरकार चलाना है तो सहना पड़ेगा लेकिन बहुत सोच समझ कर एक नया रास्ता निकला।
लालू परिवार को पहले भाजपा और फिर सरकारी एजेंसियों पड़ गई थी। जिसके बाद उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पर लगातार भर्ष्टाचार में घिरते चले गए। इतने आरोपों के बाद भी उपमुख्यमंत्री को वह कैसे अपनी सरकार में रख सकते हैं? लेकिन नितीश ने अचानक ही इस्तीफे का बम फोड़ दिया। इसका ठीकरा लालू प्रसाद यादव पर ही फोड़ा दिया।
नीतीश कुमार कहा कि मैंने इस्तीफा तो मांगा ही नहीं था। बस केवल सफाई मांगी थी। वह उन्होंने देना जरुरी नहीं समझा। देते कहां से। कुछ बोलने के लिए होता तब तो बोलते। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र लोक-लाज से चलता है। नीतीश ने लाज की फ़िक्र की, पर अपने संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल नहीं किया। अगर उनके डीप्टी सीएम पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा था तो उन्हें दो में से एक काम ही करना चाहिए था। या तो स्टैंड लेते कि जब तक आरोप साबित नहीं होता, तब तक वह इसकी चिंता नहीं करेंगे। वह तेजस्वी यादव का इस्तीफा लेते। नहीं मिलने पर बर्खास्त कर देते। लेकिन ऐसा करना राजनीतिक रूप से फायदेमंद नहीं होता।
इस्तीफा देकर नीतीश ने अपना राजनीतिक फायदा ही नहीं साधा है, बल्कि लालू के लिए संकट गहरा भी कर दिया है। लालू के लिए अब राजद को सत्ता में बनाए रखना लगभग नामुमकिन होगा। उनके बेटों का भविष्य भी चमकदार नहीं रह जाएगा। एक बेटा सरकार में उपमुख्यमंत्री और दूसरा मंत्री पद भोगता रहा है। अब बात शायद विधायकी तक ही सिमित रह जाएगी। आशंका इस बात की भी है कि कानूनी तौर पर भी पूरे लालू पारिवार की मुसीबतें अभी और बढ़ेंगी।
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नीतीश को इस्तीफे से तात्कालीन फायदा उनकी छवि का भी हुआ है। उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ हैं। इसके लिए वह कुर्सी कुर्बान करने से भी पीछे नहीं हटेंगे। कुछ उसी तरह जैसा उन्होंने नरेंद्र मोदी के नाम पर एनडीए से संबंध तोड़ते वक्त यह संदेश देने की कोशिश की थी कि वह सांप्रदायिकता से समझौता करने वाले नहीं हैं।
सभी बातों के इतर नीतीश अगर वह भाजपा के साथ मिल जाते हैं तो उनका राजनीतिक महत्व और मजबूत हो सकता है और शासन चलाने की अंदरूनी परेशानी भी कम हो सकती है। नीतीश ने इस्तीफा कुछ भी सोच कर दिया हो। लेकिन बिहार की राजनीतिक गलियारे में भविष्य में काफी उथल-पुथल आना लाजमी है।