अगर जाननें हैं नागा साधुओं के राज, तो इससे बेहतर नहीं मिलेगा मौका…

भारत के चार प्रमुख तीर्थ स्थानों — प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में 12 साल के अंतराल में कुंभ मेले का आयोजन होता है।

आस्था से जुड़े इस कुंभ मेले में नागा साधु सभी के आकर्षण का केंद्र होते हैं।

 नागा साधुओं के राज

संन्यास परंपरा से आने वाले नागा साधू कहां से आते हैं और कुंभ खत्म होते ही कहां चले जाते हैं, इसे लेकर अक्सर हमारे मन में सवाल उठता रहता है।

कुंभ मेले बड़ी संख्या में आने वाले साधु के आने और जाने का शायद ही किसी को पता चलता है।

कहते हैं कि नागा साधु कभी भी आम मार्ग से नहीं जाते, बल्कि देर रात घने जंगल, आदि के रास्ते से अपनी यात्रा करते हैं।

दीन-दुनिया से अमूमन दूर तप-साधना में लीन रहने वाले नागा साधुओं के बारे में माना जाता है कि एक आम आदमी के मुकाबले कहीं ज्यादा कठिन जीवन होता है।

नागा साधुओं को दीक्षा के बाद उनकी वरीयता के आधार पर पद दिए जाते हैं। जैसे — कोतवाल, बड़ा कोतवाल, महंत, सचिव आदि।

नागा साधुओं के अखाड़े से जुड़ा कोतवाल अखाड़े और नागा साधुओं के बीच सेतु का कार्य करता है। सुदूर जंगल, कंदराओं आदि में रहने वाले इन नागा साधुओं को कुंभ में बुलाने का कार्य हो या फिर कोई सूचना पहुंचाने का काम, यही कोतवाल करते हैं।

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आम आदमी की तरह नागा साधु भी श्रृंगार करते हैं। सूर्योदय से पूर्व उठ जाने के बाद नित्यक्रिया और स्नान के बाद नागा साधु अपना श्रृंगार करते हैं। भभूत, रुद्राक्ष, कुंडल आदि से श्रृंगार करने वाले नागा साधु अपने साथ त्रिशूल, डमरू, तलवार, चिमटा, चिलम आदि साथ रखते हैं।

माना जाता है कि संन्यासी अखाड़ों से जुड़े अधिकांश नागा साधु आम आदमी से दूर हिमालय की चोटियों, गुफाओं, अखाड़ों के मुख्यालय, और मंदिर आदि में अपनी धूनी जमाकर साधनारत रहते हैं, लेकिन ये कभी भी एक स्थान पर लंबे समय तक नहीं टिकते हैं और पैदल ही भ्रमण करते हैं।

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