जानिए लोकसभा चुनाव में पार्टियों की वोट बैंक बचाने की लड़ाई…

नई दिल्ली : अपने देश में धर्मनिरपेक्षता के दस्तूर अद्भुत हैं। जब से भारत के टुकड़े करके पाकिस्तान बनाया गया था, तबसे हमारे ‘सेक्यूलर’ राजनेताओं ने जैसे तय कर लिया है कि मुसलमानों के खिलाफ कुछ बोलना सांप्रदायिक है, लेकिन हिंदुओं के खिलाफ कुछ कहना साबित करता है कि आप कितने सेक्यूलर किस्म के व्यक्ति हैं।

 

वोट

 

 

 

बता दें की ऐसा करके उन राजनीतिक दलों ने चुनावों में मुसलमानों का वोट बटोरने का दशकों से लाभ उठाया है। पहले सिर्फ कांग्रेस को इस मुस्लिम ‘वोट बैंक’ का लाभ मिलता था, फिर जब सपा और बसपा जैसे दल बने, तो उन्होंने इस वोट बैंक को चुरा लिया।

 

 

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वहीं मायावती ने अपना चुनाव अभियान देवबंद की एक आम सभा में मुसलमानों से यह कहकर आरंभ किया कि उनको इस बार अपना वोट बांटना नहीं है। उन्होंने चिंता व्यक्त की कि उत्तर प्रदेश में यह महत्वपूर्ण और शक्तिशाली मुस्लिम वोट बैंक बंटकर कांग्रेस को भी जा सकता है, जिसका उनके महागठबंधन को सीधा नुकसान होगा।

 

मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी कुछ इस तरह की बात उस व्यक्ति ने की थी, जो आज उस राज्य के मुख्यमंत्री हैं। इस वोट बैंक को बचाने की स्पर्धा में अब नवजोत सिंह सिद्धू भी कूद पड़े हैं। अच्छा हुआ कि चुनाव आयोग ने इस तरह की भाषा पर प्रतिबंध लगाने का काम किया है, पर ऐसे भाषणों के पीछे जो यथार्थ है, उसका पर्दाफाश करने की आवश्यकता है।

यथार्थ यह है कि 1947 से लेकर आज तक मुसलमानों को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बेवकूफ बनाया गया है। ‘सेक्यूलर’ राजनेताओं ने मुसलमानों को मंदिर-मस्जिद और धर्म-मजहब के झगड़ों में इतना उलझा कर रखा है कि वे खुद अपनी असली समस्याएं भूल से गए हैं। मुसलमानों की असली समस्याएं हैं, शिक्षा, रोजगार का अभाव और गरीबी की बेड़ियों में इतना जकड़ कर रह जाना कि दलितों के अलावा मुस्लिम समाज को भारत में सबसे गरीब माना जाता है।

 

लेकिन इन मुद्दों को लेकिन कोई उठाने वाला नहीं है, क्योंकि इस समाज का नेतृत्व उन मौलवियों के हाथों में रहा है, जो राजनीतिक दलों को वोट दिलाने का काम करते आए हैं।

ऐसा करने से सेक्यूलर राजनीतिक दलों के अलावा सबसे अधिक फायदा मौलवियों और कटरपंथी सोच रखनेवाले मुस्लिम राजनेताओं ने उठाया, जो अपनी कौम को गुमराह करने में माहिर हैं।

 

सो दूर किसी देश में किसी मस्जिद को नुकसान होता है, तो देश में हजारों की तादाद में मुसलमान निकल आते हैं सड़कों पर प्रदर्शन करने। पर आज तक कभी इनको उन बातों पर आक्रोश करते नहीं देखा, जो उनकी असली समस्याएं हैं। नतीजा यह कि जब भी मैं अपने चुनावी दौरों पर निकलती हूं, तो यह देखकर दुख होता है कि चाहे राजस्थान हो, उत्तर प्रदेश हो या बिहार, सबसे बेहाल बस्तियां या गांव मुसलमानों के होते हैं।

दरअसल अफसोस की बात है कि नरेंद्र मोदी ने अपना सबसे महत्वपूर्ण वादा नहीं निभाया। उनके कार्यकाल में अगर सबका साथ, सबका विकास हुआ होता, तो गोरक्षकों की हिंसा पर लगाम लगती और शायद आज मुसलमानों को यकीन होने लगता कि सेक्यूलर राजनेताओं ने उन्हें सिर्फ वोट बैंक बनाकर रखा है।

 

वहीं गोरक्षकों की हिंसा के कारण और प्रधानमंत्री के इस हिंसा के बाद मौन रहने के कारण मुसलमान इस चुनाव में भी उन राजनीतिक दलों के वोट बैंक बन गए हैं, जिन्होंने उनके लिए कुछ नहीं किया है। भाजपा के आला नेता आज कहते फिर रहे हैं कि उन्होंने सबका विकास किया है, लेकिन जब जान की सुरक्षा ही नहीं रहती, तब विकास कोई मतलब नहीं रखता।

 

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