
स्वर्गीय नरसिम्हा राव के कार्यकाल को छोड़ दें तो कांग्रेस का नेतृत्व स्वर्गीय इंदिरा गांधी या उनके परिवार के पास ही रहा है और राजनीति में इस परिवार ने सिर्फ अपनी चलाई है। यहीं कारण है कि आज तक चाहे इंदिरा गांधी हों या फिर सोनिया गांधी दोनों ने अपना सिर ऊपर रखा है। राहुल गांधी भी उसी स्वभाव के हैं। लेकिन कांग्रेस परिवार के अलावा अगर किसी कांग्रेसी नेता ने सिर उठाने का प्रयास किया तो उसका औकातीकरण हो गया। लेकिन अब ये विचार धारा बदल रही है और सोनिया नेताओं को तवज्जो देने लगी हैं।

ये पावर पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अर्जित कर ली है। दरअसल, उन्होंने चुनाव से ठीक पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर को हिट विकेट करार देते हुए सोनिया को भरोसा दिलाया था। तंवर को सोनिया गांधी का आशीष हासिल था, लेकिन सोनिया को वही करना पड़ा जो हुड्डा ने चाहा। यहां तक कि दिल्ली में हुड्डा समर्थकों ने तंवर की पिटाई की। वह घायल हुए। अस्पताल में इलाज चला, पर एक भी हुड्डा समर्थक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। दूसरी तरफ हुड्डा समर्थक विधायक कांग्रेस आलाकमान पर यह दबाव बनाने में कामयाब रहे कि जैसे कैप्टन अमरिंदर को पंजाब में फ्री हैंड दिया गया, वैसे ही हुड्डा को दिया जाए।

वहीं, सोनिया गांधी को यह मानना भी पड़ा, लेकिन थोड़े से संशोधन के साथ किरण चौधरी को हटाकर हुड्डा को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया और कुमारी सैलजा को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष। लेकिन टिकट बंटवारे में सबसे ज्यादा हुड्डा की चली। परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस के 31 विधायकों में हुड्डा सहित बीस से अधिक विधायक चुनकर आए। तीन विधायक गुट निरपेक्ष हैं। यह भी कह सकते हैं कि वे अपने-अपने गुट के इकलौते विधायक हैं। ये हैं पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे कुलदीप, चौधरी बंसीलाल की पुत्र वधू किरण चौधरी, कैप्टन अजय सिंह यादव के बेटे राव चिरंजीव। बाकी सात-आठ सैलजा गुट में हैं। सैलजा स्वयं विधायक नहीं हैं। अब अपने समर्थक विधायकों के बल पर हुड्डा कांग्रेस नेतृत्व पर यह दबाव बना रहें कि कुमारी सैलजा को अध्यक्ष पद से हटाकर उसे अध्यक्ष बनाया जाए, जिसे वह कहें। इसके लिए हुड्डा समर्थक 19 विधायक कांग्रेस के हरियाणा प्रभारी विवेक बंसल से मिल चुके हैं। हुड्डा ने कुछ ऐसी ही फील्डिंग चुनाव के पहले भी सजाई थी और मनवांछित परिणाम हासिल करने में सफल रहे थे।
आपको बता दें कि हुड्डा सन 2005 तक इतने शक्तिशाली नहीं थे। वह सन 2005 में जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तो उसका कारण उनका शक्तिशाली होना नहीं, बल्कि सोनिया गांधी का भजनलाल को पसंद न करना था। यह बात अलग थी कि विधानसभा चुनाव भजनलाल के नेतृत्व में लड़े गए थे और हरियाणा की जनता ने भजनलाल के चेहरे पर ही कांग्रेस को 65 सीटें दी थी। लेकिन सोनिया गांधी उनसे इसलिए क्षुब्ध थीं, क्योंकि वे कभी नरसिम्हा राव के करीबी हुआ करते थे। वैसे तब सोनिया की पहली पसंद हुड्डा नहीं, चौधरी बीरेंद्र सिंह थे, जिन्होंने नरसिम्हा राव के विरोध में नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह के साथ मिलकर तिवारी कांग्रेस बनाई थी। लेकिन हुड्डा ने अहमद पटेल की पैरवी के बलपर सोनिया का आशीष हासिल कर लिया। लेकिन इसमें हरियाणा के दो प्रमुख नेताओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक थे विनोद शर्मा, जो राजीव गांधी के निकट रहे थे और उनके मंत्रिमंडल में केंद्र में मंत्री रह चुके थे।
वहीं सोनिया के नजदीक नेताओं में कुमारी सैलजा का नाम भी शामिल है। जब हुड्डा मुख्यमंत्री बने और उसके बाद उन्होंने पावर पालिटिक्स में पीएचडी कर ली और उन्होंने खुद को शक्तिशाली बनाया। क्योंकि वह जानते थे कि यदि भजनलाल समर्थक विधायक कांग्रेस से अधिक भजनलाल के प्रति निष्ठावान होते तो सत्ता का भजन भजनलाल ही करते, भूपेंद्र को अधिक से अधिक मंत्री पद पर बैठकर कीर्तन करने का ही मौका भले मिल जाता, लेकिन भूप बनने का मौका न मिलता। इसलिए विधानसभा में दूसरी बार कांग्रेस के जो 40 विधायक पहुंचे उनमें कांग्रेस के कुछेक ही थे, अधिकतर हुड्डा के थे। जोड़तोड़ कर हुड्डा ने सरकार बना ली। लेकिन इस बीच पहले सैलजा और फिर विनोद शर्मा दोनों हुड्डा से दूर हो गए।
वहीं, सैलजा और शर्मा में अंबाला में बनने वाली इंडस्ट्रियल माडल टाउनशिप (आइएमटी) को लेकर टकराव हो गया। शर्मा अंबाला से विधायक थे। उनकी अनुशंसा पर वहां आइएमटी बन रही थी। सैलजा उसके विरोध में थीं। हुड्डा ने अपने मित्र शर्मा का साथ दिया। इससे सैलजा खफा हो गईं और उन्होंने हुड्डा से दूरी बना ली। बाद में विनोद शर्मा भी अलग हो गए, लेकिन सैलजा की हुड्डा से दूरी बनी ही रही। हुड्डा के पहले शासनकाल में रणदीप सुरजेवाला, चौधरी बीरंद्रे सिंह, कैप्टन अभय यादव जैसे शक्तिशाली मंत्री थे, जो हुड्डा के लिए सिरदर्द थे। दूसरे कार्यकाल में सुरजेवाला और चौधरी बीरेंद्र सिंह हार गए।
वहीं बात अगर साल 2014 के विधान सभा चुनाव की करें तो, इस चुनाव में कांग्रेस को बुरी तरह हार मिली थी। लेकिन उसके जो पंद्रह विधायक जीते, उनमें से तीन-चार को छोड़ बाकी सब हुड्डा के थे। सोनिया गांधी ने एक बार फिर हुड्डा का औकातीकरण करने का प्रयास किया, किरण चौधरी को कांग्रेस विधायक दल की नेता बनाकर। लेकिन बाद में यह पद भी शक्ति प्रदर्शन कर हुड्डा ने हथिया लिया और नेता प्रतिपक्ष बन गए। फिलवक्त हुड्डा सदन में नेता प्रतिपक्ष हैं लेकिन उनकी अपनी पार्टी में उनका कोई प्रतिपक्ष नहीं है। जो हैं उनका सिर्फ एक मंत्र है-या सोनिया तेरा ही सहारा।