चमोली में नन्दा देवी की धार्मिक यात्रा का किया गया आयोजन, इस साल होगी अगली लोकजात यात्रा

REPORT-  PUSKAR NEGI

चमोली।नन्दा देवी राजजात ओर लोकजात यात्रा भारत के उत्तराखण्ड राज्य में होने वाली एक नन्दा देवी की एक धार्मिक यात्रा है। यह उत्तराखंड के कुछ सर्वाधिक प्रसिद्ध सांस्कृतिक आयोजनों में से एक है। यात्रा दो रूपो में होती है पहली राजजात यात्रा जो लगभग १२ वर्षों के बाद आयोजित होती है। अन्तिम जात सन् 2012 में हुयी थी। अगली राजजात सन् 2023 में होगी और दूसरी लोकजात यात्रा जो प्रत्येक वर्ष सम्पन्न होती है मां नंदा के मायके कुरूड़ से शुरू हुई ये यात्रा 31 अगस्त से शुरू हुई और अपने कई पड़ावों को पार करते हुए आज बंगाली, कोठा,डुंगरी,सूना, थराली होते हुये रात्रि विश्राम के लिए चेपड़ो पहुंच चुकी है जहां मां नंदा के जयकारों के साथ भक्तों का उत्साह देखने को मिला।

चमोली

लोक इतिहास के अनुसार नन्दा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुँमाऊ के कत्युरी राजवंश की ईष्टदेवी थी। इष्टदेवी होने के कारण नन्दादेवी को राजराजेश्वरी कहकर सम्बोधित किया जाता है। नन्दादेवी को पार्वती की बहन के रूप में देखा जाता है परन्तु कहीं-कहीं नन्दादेवी को ही पार्वती का रूप माना गया है। नन्दा के अनेक नामों में प्रमुख हैं शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी। पूरे उत्तराखण्ड में समान रूप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रूप में देखा गया है।

रूपकुण्ड के नरकंकाल, बगुवावासा में स्थित आठवीं सदी की सिद्ध विनायक भगवान गणेश की काले पत्थर की मूर्ति आदि इस यात्रा की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हैं, साथ ही गढ़वाल के परंपरागत नन्दा जागरी (नन्दादेवी की गाथा गाने वाले) भी इस यात्रा की कहानी को बयाँ करते हैं। नन्दादेवी से जुडी जात (यात्रा) दो प्रकार की हैं। वार्षिक जात और राजजात।

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वार्षिक जात प्रतिवर्ष अगस्त-सितम्बर मॉह में होती है। जो कुरूड़ के नन्दा मन्दिर से शुरू होकर वेदनी कुण्ड तक जाती है और फिर लौट आती है, लेकिन राजजात 12 वर्ष या उससे अधिक समयांतराल में होती है। मान्यता के अनुसार देवी की यह ऐतिहासिक यात्रा चमोली के नौटीगाँव से शुरू होती है और कुरूड़ के मन्दिर से भी दशोली और बधॉण की डोलियाँ राजजात के लिए निकलती हैं। इस यात्रा में लगभग २५० किलोमीटर की दूरी, नौटी से होमकुण्ड तक पैदल करनी पड़ती है। इस दौरान घने जंगलों पथरीले मार्गों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है।अलग-अलग रास्तों से ये डोलियाँ यात्रा में मिलती है। इसके अलावा गाँव-गाँव से डोलियाँ और छतौलियाँ भी इस यात्रा में शामिल होती है।

कुमाऊँ (कुमॉयू) से भी अल्मोडा, कटारमल और नैनीताल से डोलियाँ नन्दकेशरी में आकर राजजात में शामिल होती है। नौटी से शुरू हुई इस यात्रा का दूसरा पड़ाव इड़ा-बधाणीं है। फिर यात्रा लौट कर नौटी आती है। इसके बाद कासुंवा, सेम, कोटी, भगौती, कुलसारी, चैपडों, लोहाजंग, वाँण, बेदनी, पातर नचौणियाँ से विश्व-विख्यात रूपकुण्ड, शिला-समुद्र, होमकुण्ड से चनण्याँघट (चंदिन्याघाट), सुतोल से घाट होते हुए नन्दप्रयाग और फिर नौटी आकर यात्रा का चक्र पूरा होता है। यह दूरी करीब 280 किलोमीटर है।

जबकि वार्षिक होने वाली लोकजात यात्रा में मां नंदा का डोला भक्तगण मां नंदा के जयकारों के साथ वेदनी तक ले जाते हैं जहां से बाँक होते हुए मां नंदा की यात्रा अपने ननिहाल देवराडा पहुंचती है देवराडा में मां नंदा 6 माह तक रहती है

परम्परा के अनुसार वसन्त पंचमी के दिन यात्रा के आयोजन की घोषणा की जाती है। इसके पश्चात इसकी तैयारियों का सिलसिला आरम्भ होता है। इसमें नौटी के नौटियाल एवं कासुवा के कुवरों के अलावा अन्य सम्बन्धित पक्षों जैसे बधाण के १४ सयाने, चान्दपुर के १२ थोकी ब्राह्मण तथा अन्य पुजारियों के साथ-साथ जिला प्रशासन तथा केन्द्र एवं राज्य सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा मिलकर कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार कर यात्रा का निर्धारण किया जाता है।

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प्रत्येक वर्ष होने वाली मां नंदा की इस लोकजात यात्रा में हजारों लाखों की संख्या में श्रद्धालु यात्रा में हिस्सा लेते हैं और मां नंदा के डोले के साथ वेदनी तक का सफर तय करते हैं इस यात्रा में भक्तों की आस्था का सैलाब देखते ही उमड़ता है माँ नंदा को गढ़वाल ओर कुमाऊँ में इष्ट देवी की तरह पूजा जाता है ।

अधिष्ठात्री देवी मानते हुए मां नंदा के भक्त छतोली लेकर यात्रा में हिस्सा लेते हैं चमोली जिले के वाण गांव में मां नंदा का मिलन अपने धर्म भाई लाटू देवता से होता है यही से लाटू देवता मां नंदा के डोले की अगुवाई भी करते हैं इसके बाद सुनसान निर्जन जंगलों ,गधेरों पहाड़ो से होते हुए माँ नंदा की यात्रा रणकीधार ,गैरोलीपातल होते हुए वेदनी पहुंचती है जहां पूजा अर्चना के बाद देवी की यात्रा बाँक गांव होते हुए वापस लौटती है वेदनी में पूजा अर्चना के बाद ही कुमाऊँ के बागेश्वर जनपद के कोट मंदिर में मां कोट भ्रामरी का पौराणिक मेला लगता है मान्यता के अनुसार यही वेदनी में देवी के खड़क की पूजा अर्चना की जाती है स्नान इत्यादि पूजा के बाद खड़क को कोट भ्रामरी मंदिर पहुंचाया जाता है जहां कोट मेले की शुरुआत होती है

 

 

 

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