‘कल्पना’ की ऊंची उड़ान देख दंग रह गए सब

कल्पना सरोजहर कामयाब इंसान की कहानी ज्यादातर सभी को अपनी और आकर्षित करती है। साथ ही लोगों में नए जोश और उत्साह बढ़ाने का काम करती है। दुनिया में अमूमन हम कुछ ख़ास लोंगों की सीख देने वाली कहानियाँ सुना करते हैं। कुछ लोग इन कहानियों से सीख लेकर खुद में बदलाव ले आते हैं। लेकिन इस समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन कहानियों को बस पढ़ते हैं और फिर भूल जाते हैं। ये इंसान पर निर्भर करता है कि आखिर वो क्या करना चाहता है और किस मुकाम पर पहुंचना चाहता है। यदि बात महिलाओं की आ जाए तो उनका नाम तो बमुश्किल ही इन कहानियों में ढूंढें मिलता है। लेकिन आज जो कहानी हम आपके लिए ले कर आए हैं वो कहानी हैं कल्पना सरोज की। ये महिला उद्योगपति बनने का साक्षात उदाहरण हैं।

कल्पना सरोज की कहानी

कल्पना सरोज का जन्म महाराष्ट्र के अकोला जिले के रोपड़खेड़ा गाँव में हुआ। पिता महादेव पुलिस में हवालदार थे। माँ गृहिणी थीं। महादेव की छह संतानें थीं- तीन बेटियाँ और तीन बेटे। भाई-बहनों में कल्पना सबसे बड़ी थीं, और पिता की लाड़ली भी। कल्पना के दादा खेत में मजदूरी किया करते थे। उन्होंने ज़मीदारों के यहाँ नौकरी भी की। वे चाहते थे कि उनके बच्चे उनकी तरह मजदूरी न करें; इसी वजह से उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजा। महादेव भी स्कूल गए, उन्होंने सातवीं तक पढ़ाई की। बड़ी मशक्कत के बाद महादेव को पुलिस में नौकरी मिल गयी और वे हवालदार बन गए। महादेव पुलिस में थे इसी वजह से रहने के लिए उन्हें पुलिस लाइन में सरकारी क्वॉर्टर मिला। बावजूद इसके कल्पना और उनका परिवार छुआछूत और जातिगत भेदभाव का शिकार हुआ। कल्पना बताती हैं, “पुलिस लाइन में भी कुछ लोग ऐसे थे जो कि पिछड़ी जाति के लोगों को बहुत ही हीन-दृष्टि से देखते थे। ये लोग अपने बच्चों को दलित परिवार के बच्चों के साथ खेलने-कूदने नहीं देते थे। दलित बच्चों के साथ उठने-बैठने की भी मनाही थी। इन उच्च जाति के घरों में पिछड़ी जाति के लोगों को आने भी नहीं दिया था।”

आस-पड़ोस में ही नहीं बल्कि स्कूल में भी कल्पना दलित होने की वजह से छुआछूत और जातिगत भेदभाव का शिकार रहीं। दूसरे बच्चों के मुकाबले कल्पना सरोज काफी होशियार थीं, तेज़-तर्रार थीं। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ खेल-कूद, नाचने -गाने और दूसरी सभी सांस्कृतिक गतिविधियों में भी उनकी खूब दिलचस्पी थी। लेकिन, उन्हें प्रोत्साहित करना तो दूर स्कूल के टीचर उन्हें मौका भी नहीं देते थे थे। दलित होने की वजह से उन्हें ऊंची जाति के बच्चों के साथ खेलने-कूदने और नाचने-गाने का मौका ही नहीं दिया जाता था। कल्पना अपनी टीचरों से बहुत गुज़ारिश करतीं, बस एक बार मौका देने की गुहार लगतीं, लेकिन ऊंच-नीच की भावना टीचरों के मन-मस्तिष्क पर इस तरह से हावी थी कि उन्होंने कल्पना की एक न सुनीं। कुछ न कुछ बहाने बनाकर टीचर कल्पना को खेल-कूद और नाच-जाने की प्रतियोगिताओं में हिस्सा नहीं लेने देते थे। कल्पना ने बताया, “टीचर मुझसे कहती – तुम नहीं कर पाओगी, या वो कहती – तुम अच्छा नहीं कर पाओगी। उन्होंने स्कूल में मुझे कभी भी कुछ करने का मौका ही नहीं दिया।”

कल्पना सरोज के मुताबिक, उनका परिवार पुलिस लाइन के सरकारी मकान में रहता था इसी वजह से हालात कुछ हद तक ठीक थे। उन दिनों गाँवों-देहातों में हालात और भी बुरे थे। दलितों के साथ बहुत ही बुरी तरह से व्यवहार किया जाता था। उनका शोषण होता और उन्हें अपमानित किया जाता। ऊंची जाति के लोग दलितों की परछाई भी अपने ऊपर पड़ने नहीं देते थे।

एक बार कल्पना को अपने दादा के साथ गाँव जाने का मौका मिला। वैसे तो दादा भी उन्हीं के साथ रहते थे, लेकिन कभी-कबार अपने गाँव भी जाते थे। स्कूल की छुट्टियां होने पर दादा एक बार कल्पना को अपने साथ गाँव ले गए।

गाँव में लोगों ने जिस तरह से उनके दादा के साथ व्यवहार किया उसका कल्पना के बाल-मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। कल्पना के कहा, “दादाजी को उन लोगों ने अपने घर में भी आने नहीं दिया। टूटे हुए बर्तन में पीने के लिए पानी दिया और अलग से रखे गए कुल्हड़ में चाय पिलाई।

जिस तरह से उन लोगों ने दादाजी के साथ बातचीत की और बर्ताव किया, उसे देखकर मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने दादाजी से इस भेदभाव का कारण पूछा। तब मुझे दादाजी ने बताया कि हम नीची जाति के हैं और इसी वजह से ऊंची जाति के लोग हमारे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं।”

कल्पना को जल्द ही अहसास हो गया कि लोग जाति के नाम पर भेदभाव करते हैं। गावों में दलितों के लिए अलग बस्तियां होती हैं। कई लोग ऐसे हैं जो दलित और दूसरी पिछड़ी जाति के लोगों को अछूत समझते हैं और उन्हें छूना भी पाप मानते हैं।

कल्पना का बाल-मन ये समझ ही नहीं पा रहा था कि आखिर सभी इंसान ही हैं फिर ऐसा भेद-भाव क्यों? वे ये समझ नहीं पा रही थीं कि अगर दूसरे बच्चे उनके साथ खेलें तो उनका क्या बुरा हो जाएगा?

वे ये भी जानता चाहती थीं कि अगर वो किसी दूसरे के घर के चूल्हे-चौके में चली भी गयीं तो इससे उनका क्या नुक्सान होगा? उम्र छोटी थी, नजरिया आम बच्चों जैसा था, मस्तिष्क भी परिपक्व नहीं था, बहुत कुछ और भी देखना और समझना बाकी था, इसी वजह से कल्पना उस समय के सामाजिक ताने-बाने और परिस्थितियों को नहीं समझ पायीं।

कल्पना बचपन में न सिर्फ छुआछूत और जातिवाद का शिकार रहीं बल्कि उन्होंने गरीबी के थपेड़े भी खूब खाए। भले ही कल्पना के पिता पुलिस में नौकरी करते थे, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति मज़बूत नहीं थी। कल्पना का परिवार काफी बड़ा था। घर में माता-पिता, दादा-चाचा के अलावा तीन भाई और दो बहनें रहती थीं। इन सभी के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी पिता महादेव पर ही थी। घर में कमाने वाले वे अकेले थे। इतने बड़े परिवार का गुज़ारा पिता के मामूली वेतन पर होना बेहद कठिन था।

कल्पना के मुताबिक़ उनके पिताजी की पगार तीन सौ रुपये महीना थी। परिवार बड़ा था। चाचा की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी पिताजी पर ही थी। बुआ भी अक्सर घर आती थीं। घर चलाना आसान नहीं था। ऐसी हालत में मुझे लगा कि पिताजी का हाथ बंटाना चाहिए।

परिवार की आर्थिक मदद करने के मकसद से कल्पना ने बचपन से ही काम करना शुरु कर दिया। स्कूल से छुट्टी होते ही कल्पना नजदीक के जंगल में जातीं और वहां से लकड़ी चुनकर लातीं। ये लकड़ी या तो घर के काम आती या फिर उसे बेचकर कल्पना पैसे जुटातीं। कल्पना ने बचपन से ही खेतों में काम करना भी सीख लिया था। पैसे कमाने के मकसद से वे खेत जातीं और खेतों में घांस काटने, मूंगफली तोड़ने, कपास चुनने का काम भी करने लगीं। बचपन में कल्पना ने गोबर के उपले बनाकर भी खूब बेचे।

कल्पना को बचपन से ही पढ़ने का शौक था और पढ़ने-लिखने के लिए ज़रूरी किताबें मैं अपनी इसी कमाई से खरीद लेती थी।

जैसे-जैसे वे चीज़ों और हालातों को समझने लगी थीं, वैसे-वैसे वे विचारों से परिपक्व होने लगी थीं- अपनी जिम्मेदारियों को समझने लगी थीं।

दूसरे बच्चों की तरह कल्पना के भी बचपन में अपने सपने थे। बचपन में कल्पना सेना या पुलिस में भर्ती होने के सपने देखा करती थीं।

पिता पुलिस में थे इस वजह से स्वाभाविक भी था कि वे उनसे प्रभावित थीं और खूब पढ़-लिखकर पुलिस अफसर बनना चाहती थीं।

वे बताती हैं, “मैंने ‘हकीकत’ फिल्म देखी थी। इस फिल्म का असर मुझपर कुछ इस तरह से पड़ा था कि मैं भी बॉर्डर पर जाकर दुश्मनों को मारना चाहती थी।” लेकिन कल्पना का ये सपना सच न हो सका। उनके दूसरे सपने भी चकनाचूर हो गए। महज़ 12 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गयी।

बारह साल की कल्पना का विवाह उनसे दस साल बड़े एक आदमी से किया गया था। शादी की वजह से कल्पना को स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी, उनके कई सारे सपने हमेशा के लिए ख़त्म हो गए। शादी के तुरंत बाद कल्पना का पति उन्हें अपने साथ मुंबई ले गया।

ससुरालवालों ने कल्पना को बहुत प्रताड़ित किया। मुंबई की जो तस्वीर कल्पना को दिखाई गई थी असलियत उससे कहीं अलग थी।

जेठ और जेठानी ने उनके साथ बदसलूकी करना शुरू कर दिया। छोटी-छोटी बातों पर जेठ-जेठानी कल्पना को मारने-पीटने लगे। अपशब्द कहना तो आम बात हो गयी थी। जेठ-जेठानी का सलूक इतना बुरा होता कि वो कल्पना के बाल पकड़कर नोचते और उसे बुरी तरह मारपीट कर ज़ख़्मी कर देते।

कल्पना को लगा कि गाँव लौटने के बाद जीवन में खुशियाँ वापस लौट आयेंगी, उन्हें दुःख और पीड़ा से मुक्ति मिलेगी, अपनों से प्यार और इज्ज़त मिलेगी, लेकिन इस बार भी बिलकुल उलट हुआ। गाँव के लोगों और रिश्तेदारों ने कल्पना को ताने मारना शुरु कर दिया। ससुराल को छोड़ने और घऱ वापस आने के उनके फैसले को लेकर थू-थू होने लगी।

इससे ट्रस्ट होकर कल्पना ने आत्महत्या करने की कोशिश भी की लेकिन उन्हें बचा लिया गया। लेकिन, इस बीच एक ऐसी घटना हुई जिसने कल्पना की ज़िंदगी को पूरी तरह से बदल दिया। उनके जीवन को एक नया मकसद और एक नया लक्ष्य दिया। कल्पना की छोटी बहन गंभीर रूप से बीमार पड़ गई।

कल्पना ने अपने शक्ति के मुताबिक उसका इलाज भी कराया, लेकिन बहन की जिंदगी बच न सकी। अंतिम समय में वह कल्पना से उसे बचाने की गुहार लगाती रही लेकिन कल्पना कुछ न कर सकीं। बहन की मौत से विचलित कल्पना को ख़ुद के आर्थिक रूप से संपन्न न होने पर बडी कोफ्त हुई। उन्होंने तय कर लिया कि वे गंभीरता से व्यापार करेंगी और आर्थिक रूप से संपन्न बनेंगी।

इसी दौरान उन्हें कमानी ट्यूब्स कंपनी को फिर से शुरू करने का काम मिला। कमानी टयूब्स को पुनर्जीवित करते हुए कल्पना ने कामयाबी की जो कहानी लिखी है उसके इतिहास की किताबों में अपनी जगह हमेशा के लिए पक्की कर ली है।

परिस्थितियाँ बिलकुल विपरीत थीं, लेकिन कल्पना ने हिम्मत नहीं हारी, कभी हार नहीं मानी। मेहनत में कोई कसार नहीं छोड़ी, कारोबारी सूझ-बूझ का परिचय दिया, हिम्मत से काम किया और आखिर में जीत गयीं। विपरीत परिस्थतियों से जूझती एक दलित और कम पढ़ी-लिखी महिला ने ये जो कारनामा कर दिखाया है ये बिज़नैस जगत के बड़े-बड़े महारथियों के लिये भी मुमकिन न था।

कल्पना ने जब कमानी की ज़िम्मेदारी लेने का फैसला किया तब कई लोगों ने उन्हें पागल कहा। लोग कहते थे ये आग का दरिया है इसे पार करना मुश्किल है।

लेकिन, वे मजदूरों की मदद करना चाहती थी। और मैं मदद करने में कामयाब भी रही, मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि मैं कई मजदूरों की ज़िंदगी में खुशियाँ वापस लाने में कामयाब रही।

कल्पना ने ये भी कहा, “शुरू से ही मुझे काम करना अच्छा लगता है, जब काम दूसरों की मदद के लिए हो तो और भी अच्छा लगता है।

मुझमें लालच बिलकुल नहीं है, मैंने बचपन से ही मेहनत की है। मेरे पास पाव (डबल रोटी) खरीदने को दस पैसे नहीं थे, लोकल ट्रेन में सफ़र करने के लिए रुपये नहीं थे तो मैं कुर्ला से चेम्बूर पैदल चलकर जाती थी। मैं आज जो भी हूँ अपनी मेहनत की वजह से हूँ, ईमानदारी की वजह से हूँ। मुझमें जब तक जान है मैं काम करती रहूँगी, लोगों की मदद करती रहूँगी।”

आज ऐसा कुछ भी नहीं जिसकी इनके जीवन में कमी हो।

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