चुनाव तो कब के समाप्त हो गए हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार की चुनावी रणभूमि पर अभी तक दो शव पड़े हैं, जिनका अंतिम संस्कार करना बाकी है। एक शव है करिश्मा का और दूसरा है जाति आधारित राजनीति का। ये महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दे हैं, सो इनका अंतिम संस्कार करना हम राजनीतिक पंडितों का काम है।
वहीं अभी तक हमने ऐसा इसलिए नहीं किया है, क्योंकि यह यकीन करना मुश्किल है कि उत्तर भारत की राजनीति के ये दो सबसे शक्तिशाली खंभे वास्तव में गिर गए हैं।
जहां अगर ये खंभे गिरे न होते, तो उत्तर प्रदेश में महागठबंधन इतनी बुरी तरह पराजित न हुआ होता और न ही मायावती इस गठबंधन को तोड़ने की बात करतीं। ऐसे ही बिहार में लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल का इतना बुरा हाल हो चुका है कि वह लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाया। उनकी बेटी मीसा भारती भी हार गईं।
रही करिश्मे की बात, तो साफ दिखता है कि इस पुराने चुनावी हथियार में ऊर्जा बची होती, तो राहुल गांधी अमेठी में नहीं हारते। सो दोनों शव हमको दिखते तो हैं, लेकिन यकीन नहीं आता कि ये कभी पुनर्जीवित नहीं होने वाले, क्योंकि ये दशकों से चुनाव जिताते आए हैं। मेरे जैसे वरिष्ठ पत्रकारों ने वे दिन देखे हैं, जब इंदिरा गांधी का चेहरा देखकर मतदाता उनको अपना वोट दे दिया करते थे।
लेकिन वह दौर देखा है मैंने, जब मुलायम सिंह और लालू यादव की इतनी शक्ति थी कि मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी को अपने परिवार की निजी कंपनी में परिवर्तित कर दिया था और फिर भी वह जीत सकते थे।
जहां लालू यादव ने जेल जाने से पहले बिहार सरकार को पत्नी राबड़ी देवी के हवाले कर दिया था। इतने गलत काम करने के बाद भी इन यादव क्षत्रपों को कोई हरा नहीं सकता था। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह का मुकाबला सिर्फ मायावती कर सकती थीं, जिनकी अपनी राजनीति भी जातिवाद पर आधारित थी।
नरेंद्र मोदी के आने से पहले भारतीय जनता पार्टी अगर उत्तर प्रदेश में जातिवादी राजनीतिक दलों को कभी चुनौती दे पाई, तो राम मंदिर के नाम पर, और वह भी केवल थोड़े समय के लिए। जातिवाद का झंडा तब इतना ऊंचा लहराता था कि दिल्ली केे राजनीतिक पंडित उसको देखकर कल तक भविष्यवाणी कर रहे थे कि प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में मायावती सबसे आगे हैं।
हमारे सारे समीकरण इस चुनाव में गलत साबित हुए हैं, तो शायद इसलिए हुए, क्योंकि हम अतीत के किसी गड्ढे में फंसे रहे, जहां से हमें दिखाई नहीं दिया कि इस देश के मतदाता हमसे आगे निकल गए हैं।
दरअसल दिखाई नहीं दिया हमें कि कभी जो जगह करिश्मा और जातिवाद की होती थी, वह जगह अब विकास और परिवर्तन ने ले ली है। सच तो यह है कि पिछले पांच साल में मैं जब भी चुनाव का हाल जानने दिल्ली के बाहर जाती थी, तो मुझे साफ दिखाई देता था कि मतदाताओं के लिए मुद्दे बदल चुके हैं। स्पष्ट शब्दों में लोग कहते थे कि उनका वोट मोदी को जाएगा, क्योंकि जब से मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, उन्होंने परिवर्तन आते हुए देखा है।
फिर दिल्ली वापस लौटकर जब मैं अपने पत्रकार बंधुओं से बातें करती थी, तो मुझे यह यकीन हो जाता था कि राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका का करिश्मा नरेंद्र मोदी को हरा देगा।
मुझे यकीन हो जाता था कि जातिवाद की शक्ति अब भी इतनी है कि नरेंद्र मोदी दोबारा किसी हाल में उत्तर भारत में उतनी सीटें नहीं ला पाएंगे, जो उनको वर्ष 2014 में मिली थीं। इस बार दिल्ली के कई प्रसिद्ध राजनीतिक पंडितों को मुंह की खानी पड़ी है।