क्या पार्रिकर संभाल पाएंगे अपना गढ़ या राज करेगा कोई नया बादशाह!

राजनीतिक पार्टीजिस तरह गोवा का इतिहास बार बार इस हाथ से उस हाथ डोलता रहा। ठीक उसी तरह यहां की राजनीति का भी  हाल है। लगभग 450 सालों तक पुर्तगालियों के हाथ में रहने के बाद दिसंबर 1961 में जब गोवा पूर्ण रूप से भारत की झोली में आया तो उसकी बिगड़ी व्यवस्था को सुधारने में काफी समय लगा। स्थिति यहां भी सामान्य नहीं रही। विभिन्न राजनीतिक उठापटक और बिगड़ैल व्यवस्था का दंश झेल रहे गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा 1987 में मिला और तब से ही यहां की राजनीति में किसी भी राजनीतिक पार्टी का वर्चस्व लंबे समय तक कायम न रह सका सिवाय एक पार्टी को छोड़कर वो था भारत को अपनी विरासत समझने वाला गांधी परिवार। सभी अपने एक एक कार्यकाल के लिए आईं और जैसे तैसे निपटा के चलती बनीं। हांलाकि इसकी किस्मत अच्छी थी जो यहां की हालत उत्तर प्रदेश जैसी नहीं थी। यहां न तो बेशुमार जनसंख्या की परेशानियों से दो चार होने की समस्या और न ही मौसम की विभिन्नता।

छोटा सा प्रदेश होने के नाते यहां स्थिति शुरुआत से ही सामान्य रही। लेकिन जिस तरह से केंद्र की राजनीति में नेहरू गांधी परिवार ने पिछले लगभग 60 सालों से सारे मोहरे अपने हाथ में रखकर बाजियां अपने नाम पर करते रहे। ठीक उसी तरह यहां की सियासत में ज्यादातर उन्ही का ही बोलबाला रहा। लेकिन साल दर साल जिस तरह समाज, प्रकृति और हमारे दौर में परिवर्तन आता गया ठीक उसी तरह यहां की राजनीति में भी। पिछले वर्षों की तुलना में यदि देखें तो यहां भी लोग गोवा में मात्र दो कार्यकाल बिताने वाले केंद्रीय राजनीतिक दल भाजपा को ही पहली पसंद के रूप में देख रहे हैं। माहौल तो ये है कि पश्चिमी सभ्यता वाले इस गढ़ में कहीं न कहीं अब भगवा की खुशबू आने लगी है और यहां के लोग अपने परिवेश को छोड़कर भगवा चोला ओढ़ना पसंद कर रहे हैं।

गोवा में भाजपा का पिछला कार्यकाल देखें तो काफी कुछ उपलब्धियां हैं गिनाने को। लेकिन राजनीति में कड़ी होती प्रतिस्पर्धा और दिन पर दिन कुकुरमुत्ते की तरह उग रही राजनीतिक पार्टियों के चलते यहां भी चुनावी मौसम में पारा अपने चरम पर है। यहां के चुनावी मैदान में कांग्रेस, भाजपा और तमाम बड़ी राजनीतिक पार्टियों के साथ साथ आम आदमी पार्टी भी कड़ी चुनौती पेश करती नजर आ रही है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि कौन सी राजनीतिक पार्टी के साथ क्या, कब और कैसे हो जाए। क्योंकि पिछले दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों ने सभी चुनावी सर्वेक्षणों को झुठलाते हुए एक अलग ही तस्वीर पेश की थी। ठीक उसी तरह यहां भी 11 मार्च की दोपहर तक कुछ नहीं कहा जा सकता है कि ऊंट किस करवट बैठना पसंद करेगा।

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