
रिपोर्ट- कुलदीप राणा
रूद्रप्रयाग। वन और पर्यावरण के प्रति हमारा सरकारी तंत्र जिस तरह से हर साल करोड़ अरबों रूपये स्वाहा कर देता है और कागजों में वनीकरण की तमाम योजनाएं संचालित की जाती हैं लेकिन परिणाम अंतत शून्य ही नजर आता है। वहीं कुछ लोग हैं जो निस्वार्थ भाव से पर्यावरण बचाने की दशकों से मुहीम छेड़े हुए हैं। जबकि इस क्षेत्र में इनका कार्य सरकारों की नीतियों को आईना भी दिखा रहा है।
मन में दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो मुश्किल सा काम भी आसान हो जाता है। कुछ लोग होते हैं जिनके दिल में जज्बा और सफलता के लिए सिर पर जूनून सवार रहता है सच पूछों तो ऐसे व्यक्तियों के सामने बाधायें दबे पाँव लौट जाती है। यही लोग बाद में विराट व्यक्तित्व बनते हैं।
रुद्रप्रयाग जनपद से 10 किमी दूर गडमिल गांव के रहने वाले दशरथ सिंह बुटोला पर उपर्युक्त पंक्तियां चरितार्थ हो रही हैं। दशरथ बुटोला ने आज से करीब 20 वर्ष पूर्व ऐसे विहड़ पथरीली बेजान और नंगी जमीन पर जंगल की कल्पना कि थी जिसे साकार होने की बात से ही लोग इन्हें हँसी का पात्र बना देते थे।
विभिन्न संस्थाओं और सरकारी विभागों के सामने इस विहड़ तोक को जंगल का स्वरूप देने का प्रस्ताव सरकारी मशीनरी के गले भी नहीं उतरती थी। लेकिन दशरथ बुटोला ने उस क्षेत्र में ग्रामीणों के सहयोग से साल 1999 में वृक्षा रोपण किया और समय-समय पर खाद-पानी निराई-गुडाई करते रहे तो उसी बेजान और पथरीली भूमि में भी जान आने लगी।
आज आज दो दशक बाद 10 हेक्टेयर भूमि में फैले एक घना सा मिश्रित वन तैयार होकर खड़ा है। इस जंगल में खड़े विभिन्न प्रजातियों के छायादार और फलदार पेड़ ऐसे तनकर खड़े हैं मानों सरकार के वन विज्ञान को लोक पुरूषार्थ ने मात दे दी हो।
दरअसल गड़मिल गांव के दशरथ बुटोला ने अपने गांव से दो किमी दूर हड़ेटीखाल में विहड़ पथरीली और बेजान वन पंचायत की भूमि को 20 वर्ष पूर्व जंगल में तब्दील करने का सपना देखा था। उस दौर में उस इलाके करीब दस गाँवों के लोगों का वहाँ गौ चरान (गायों को चुगाने वाला स्थान) हुआ करता था। बुटोला द्वारा इस स्थान के घेरबाड़ कर वनीकरण करने पर कुछ गांवों द्वारा इसका विरोध किया गया।
मामला इतना अधिक बढ़ा की कोट कचेरी तक जा पहुँचा लेकिन दशरथ बुटोला को इस क्षेत्र में घटते वन क्षेत्र और सूखते जल श्रोतों की चिंता ने इस बात को लेकर अडिग कर दिया कि बिना वनों के आने वाला भविष्य बहुत खतरनाक रूप लेने वाला है। इस चिंता ने उन्हें आगे लड़ने की शक्ति दी और वे तमाम कानूनों के दांव पेंच से जीत गए।
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तत्कालीन वन सरपंच रहते हुए उन्होंने ग्रामीणों के सहयोग से 10 हेक्टेयर इस नंगी भूमि पर वनीकरण कर दिया। हालांकि अनेक परेशानियों से भी वे जूझते रहे। कभी तारबांड चोरी हो जाती तो कभी वनीकरण में असामाजिक तत्व आग लगा देते। बावजूद वे अडिंग रहे और आज दो दशकों के पश्चात यहां एक बड़ा मिश्रित वन खड़ा है जिसकी क्षेत्र की लोग भी सराहना करते हैं।
दशरथ बुटोला की मेहनत न केवल उस क्षेत्र में पानी के श्रोतों को पुर्नजीवित किया बल्कि सरकारों की नीतियों को भी आईना दिखाया जो हर साल करोड़ों खर्च करने के बाद भी परिणाम तक नहीं पहुंच पाते हैं।