गोरखपुर उपचुनाव : सियासी वर्चस्व की लड़ाई में हार गई भाजपा, लेकिन जीत गया ‘मठ’!

लखनऊ। गोरखपुर उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार कई मायनों में बेहद दिलचस्प है। इस हार के कई सियासी कयास भी जगाए जा रहे हैं। वैसे तो गोरखपुर में ब्राह्मण बनाम ठाकुर की राजनीति की बिसात बहुत पहले से चली आ रही है। जिसका एक और जीता जागता उदाहरण आज फिर एक बार सामने आ गया। यहां दोनों ही धड़ों के लोग अपने तरीके से सियासी चाल चलते थे।

भारतीय जनता पार्टी

ठाकुर और ब्राह्मण के बारे में बात करें, तो इस वर्चस्व की राजनीति की शुरुआत दशकों पहले शुरू हुई थी, जो आज भी जारी है।

बताया जाता है कि उस वक्त गोरखनाथ मंदिर के महंथ दिग्विजय नाथ हुआ करते थे। और गोरखपुर के ब्राह्मणों के बीच पं. सुरतिनारायण त्रिपाठी बहुत प्रतिष्ठित थे। किसी वजह से दिग्जिवज नाथ ने सुरतिनारायण त्रिपाठी का अपमान किया था।

वहीं से क्षत्रिय बनाम ब्राह्मण का गणित शुरू हो गया। अब बात करते हैं मुख्यमंत्री योगी के उत्तराधिकारी के तौर पर मैदान में उतारे गए उपेन्द्र दत्त शुक्ला के बारे में। लेकिन इससे पहले गोरखपुर के कुछ सियासी किस्सों से रूबरू कराते हैं।

बात उस वक्त की है जब युवा नेता हरिशंकर तिवारी ने दिग्विजय नाथ के खिलाफ आवाज उठाते हुए ब्राह्मण के सियासी कद को बढ़ाने में अहम् भूमिका निभाने की शुरुआत की।

वहीँ आगे चलकर ठाकुरों का नेतृत्व वीरेंद्र शाही के हाथ आया, लेकिन हरिशंकर तिवारी का ‘हाता’ और अवैद्यनाथ के ‘मठ’ के बीच गोरखपुर में वर्चस्व की लड़ाई चलती रही।

90 के दशक में योगी आदित्यनाथ के हाथ मठ की कमान आई। योगी ने ‘मठ’ की ताकत बढ़ाई। उनकी हिंदू युवा वाहिनी आसपास के कई जिलों में सक्रिय हुई। इसी बीच साल 1998 में माफिया डॉन श्रीप्रकाश शुक्ला का एनकाउंटर कर दिया गया, जिसे ब्राह्मण क्षत्रप कहा जाता था।

सियासत के पटल पर बराबरी पर हैं ब्राह्मण-राजपूत

गोरखपुर में ब्राह्मणों और राजपूतों के बराबर वोट हैं, लेकिन योगी आदित्यनाथ की ताकत लगातार बढ़ी, ब्राह्मण नेतृत्व कमजोर होता गया।

इसके साथ ही ‘हाता’ का असर कम होता गया। उस वक्त शिवप्रताप शुक्ला ब्राह्मणों के सर्वमान्य और ताकतवर नेता थे। लेकिन योगी की बढ़ती ताकत के साथ ही उनका राजनीतिक पतन होता चला गया।

मोदी-शाह युग से पहले आलम ये था कि पूर्वांचल में एक वक्त में मामला योगी बनाम बीजेपी हो गया था। वह जिसे चाहते उसे टिकट मिलता, जिसे नहीं चाहते वह टिकट पाकर भी हार जाता। मजबूरन बीजेपी को उनके आगे घुटने टेकने पड़ते। उनकी हर बात माननी पड़ती। योगी की बनाई हिन्दू युवा वाहिनी इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी।

विस चुनाव के बहुमत से निकला नया मुख्यमंत्री

साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला। मुख्यमंत्री के लिए कई नाम सामने आए। मनोज सिन्हा का नाम फाइनल तक हो गया। लेकिन ऐसा माना जाता है कि आरएसएस के समर्थन से योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे।

योगी के मुख्यमंत्री बनते ही यूपी में सबसे ज्यादा नाराजगी ब्राह्मणों में थी। यह बात केंद्रीय नेतृत्व तक पहुंची। इसके बाद मोदी और शाह ने डैमेज कंट्रोल के लिए कई कोशिशें की, जिसमें महेंद्र पांडेय को यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बनाना भी शामिल है।

बीजेपी नेतृत्व पूर्वांचल में ठाकुर बनाम ब्राह्मण से भली भांति परिचित हो चुका था। इसलिए योगी की सीट पर टिकट देने के लिए किसी ब्राह्मण चेहरे की तलाश थी, ताकि यहां भी संतुलन बनाया जा सके। इसी के चलते उपेंद्र दत्त शुक्ल को उम्मीदवार बनाया गया।

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लेकिन सूत्र बताते हैं कि सीएम योगी आदित्यनाथ कतई नहीं चाहते थे कि गोरखपुर का नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथ में जाए। योगी के सामने अपनी सीट बचाने से ज्यादा अहम था गोरखपुर में अपने ‘मठ’ की ताकत को बचाना।

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इसके बावजूद उपेंद्र दत्त शुक्ल को गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। चूंकि आदेश अमित शाह का था, तो इसके सीधे विरोध में जाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। लेकिन आलम ये रहा कि बूथ पर बीजेपी के एजेंट तक मौजूद नहीं थे। इसके उलट सपा और बसपा के समर्थक जोश से लगे हुए थे, जिसका परिणाम आज सबके सामने है।

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