सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मातृत्व अवकाश को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि मातृत्व अवकाश महिलाओं के प्रजनन अधिकारों का अभिन्न हिस्सा है और कोई भी संस्था किसी महिला को इस अधिकार से वंचित नहीं कर सकती। यह ऐतिहासिक आदेश तमिलनाडु की एक सरकारी शिक्षिका की याचिका पर आया, जिसे दूसरी शादी से हुए बच्चे के जन्म के बाद मातृत्व अवकाश देने से इनकार कर दिया गया था।

महिला ने अपनी याचिका में बताया कि तमिलनाडु सरकार ने उसे इस आधार पर मातृत्व अवकाश देने से मना किया कि उसकी पहली शादी से दो बच्चे हैं और राज्य का नियम केवल पहले दो बच्चों के लिए मातृत्व लाभ की अनुमति देता है। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उसने अपनी पहली शादी से हुए बच्चों के लिए कभी मातृत्व अवकाश या कोई लाभ नहीं लिया था। साथ ही, वह अपनी दूसरी शादी के बाद ही सरकारी सेवा में शामिल हुई थी।
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता के.वी. मुथुकुमार ने दलील दी कि राज्य सरकार का निर्णय महिला के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, क्योंकि उसने पहले तमिलनाडु के मातृत्व लाभ प्रावधानों का उपयोग नहीं किया था। उन्होंने कहा कि मातृत्व अवकाश को बच्चे की संख्या से जोड़ना और दूसरी शादी के बाद के बच्चों को इसके दायरे से बाहर रखना संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा, “मातृत्व अवकाश मातृत्व लाभ का मूलभूत हिस्सा है और यह महिलाओं के प्रजनन अधिकारों से जुड़ा है। यह न केवल मां और बच्चे के स्वास्थ्य के लिए जरूरी है, बल्कि लैंगिक समानता को बढ़ावा देने का भी एक साधन है।” कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार के नियम को “मनमाना और भेदभावपूर्ण” करार देते हुए याचिकाकर्ता को मातृत्व अवकाश देने का निर्देश दिया।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि मातृत्व अवकाश का अधिकार कर्मचारी के सेवा में शामिल होने की तारीख या पिछली शादियों से बच्चों की संख्या पर निर्भर नहीं हो सकता। यह फैसला भविष्य में अन्य महिलाओं के लिए भी मातृत्व लाभ सुनिश्चित करने में मील का पत्थर साबित हो सकता है।