पहले Covid-19 महामारी और अब Ukraine Crisis में लोगों ने उठाया सवाल, छात्रों को पढ़ाई के लिए छोटे देश में जाने की जरूरत क्यों ?

दिलीप कुमार

24 फरवरी को रूस यूक्रेन पर हमला करता है और अब तक रूस यूक्रेन के कई बड़े शहरों जैसे खार्किव,चर्नोबिल आदि पर अपना आधिपत्य जमा लिया है। इस दौरान रसिया के 400 सेना समेत यूक्रेन में हजारों की तादाद में जानमाल की हानि हो चुकी है। लेकिन सनसनी भारत में फैली है। इसका मूल कारण है यह कि भारत से यूक्रेन पढ़ने गए 18000 के तादाद में छात्र वहां फंसे थे। जिन्हें भारत सरकार पिछले एक सप्ताह से निकालने के लिए ऑपरेशन गंगा चला रही है।

अब तक भारत सरकार 13000 से अधिक छात्रों को वतन वापस ला चुकी है। लेकिन यूक्रेन में अभी भी हजारों की तादाद में छात्र फंसे हैं, जो पानी और भोजन के लिए तरस रहे और गुहार लगा रहे हैं कि भारत सरकार से उन्हें जल्द से जल्द वहां से बाहर निकाले। इसी बीच देश भर में आम लोगों में एक बहस छिड़ा है कि आखिर लोग अपना देश छोड़कर ऐसे छोटे-मोटे देशों में इतनी दूर क्यों पढ़ने जाते हैं। इतनी बड़ी संख्या में लोग मेडिकल की पढ़ाई करने इंग्लैण्ड, अमेरिका न जा कर यूक्रेन गए थे।

इस पर लोग आश्चर्य भी जता रहे हैं। बहर हाल देश के आम नागरिकों का अचंभित होना लाजमी है लेकिन अफसोस तो इस बात की है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधानसभा में इतना गैर जिम्मेदाराना बयान कैसे दे सकते हैं। इस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है। उन्होंने कहा कि मुझे इस बात की अब जानकारी हुई है कि बिहार ही नहीं अपितु पूरे देश से इतने छात्र मेडिकल की पढ़ाई करने यूक्रेन गए हैं। यह समस्या हमारे बिहार जैसे गरीब राज्य का ही नहीं बल्कि पूरे देश का है। इस पर केंद्र सरकार को विचार करना चाहिए, यह एक राष्ट्रीय मुद्दा है।

दोस्तों नीतीश कुमार का इस तरह का अनर्गल बयान या गैर जिम्मेदाराना बयानबाजी करना बड़ा बेढंगा लगता है।
मुझे समझ नहीं आ रहा है कि कैसे एक प्रदेश का मुख्यमंत्री इस तरह से बोल सकता है। आपको बता दूं कि यूक्रेन से वापस लौट रहे छात्र किसी बड़े रहीस खानदान से बिलांग नहीं करते हैं। ये यूक्रेन से लौटने वाले ज्यादातर छात्र एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार से हैं और ज्यादातर छात्र स्कॉलरशिप के दम पर यूक्रेन में पढ़ाई करने गए।

छात्रों के बाहर जाकर पढ़ाई करने को लेकर बजट घोषणाओं पर एक वेबिनार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टिप्पणी की थी कि कैसे ‘हमारे बच्चों को आज पढ़ने के लिए छोटे-छोटे देशों में जाना पड़ रहा है’। साथ ही उन्होंने निजी क्षेत्र से यह आग्रह भी किया कि छात्रों का बाहर जाना रोकने के लिए वो इस क्षेत्र में आगे आए।

कंसल्टेंसी फर्म रेडसीर के अनुसार मौजूदा समय में 7,70,000 भारतीय छात्र विदेशों में पढ़ रहे हैं और 2016 में बाहर पढ़ने वालों की संख्या 4,40,000 थी। पिछले चार वर्षो में बाहर जाकर पढ़नें वालों की संख्यी 20 फिसदी बढ़ी है।
1990 के दशक में, और उससे पहले भी भारत के अधिकांश छात्र अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा जैसे अंग्रेजी-भाषी देशों में जाते थे। ऑस्ट्रेलिया एक बिल्कुल नया गंतव्य स्थल है, जो पिछले 15 वर्षों में खासा लोकप्रिय हुआ है। उस समय, धनी परिवार अपने बच्चों को पढ़ने के लिए विदेश भेजते थे, क्योंकि इसे एक स्टेटस सिंबल माना जाता था।

आपको बता दे कि भारतीय छात्रों का पढ़ाई के लिए विदेशों का रुख करना कोई नई बात नहीं है। कई दशकों से भारत में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा संस्थानों के अभाव और मांग-आपूर्ति में अंतर की वजह से तमाम परिवार अपने बच्चों को विदेश भेजने के लिए बाध्य रहे हैं। हालांकि, हाल के दो घटनाक्रमों एक तो कोविड-19 महामारी और वर्तमान में यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे जंग— ने इससे जुड़े एक अलग ही पहलू को उजागर किया है।
अब लोगों में इस प्रश्न को लेकर ज्यादा दिलचस्पी है कि यूक्रेन जैसा ‘छोटा देश’ क्यों चुन रहे ?

भारत में निजी और सार्वजनिक संस्थानों में महज 80,000 के करीब मेडिकल सीटें हैं और हर साल लगभग सात लाख छात्र (नीट) परिक्षा में बैठते हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि सबको सीट उपलब्ध नहीं हो पाता है। दूसरा कारण पढ़ाई पर होने वाला खर्च भी छात्रों के छोटे देशों की तरफ रुख करने का एक बड़ा कारण है। अमेरिका में मेडिसिन की पढ़ाई के लिए किसी छात्र को सालाना 18 लाख से 30 लाख रुपये के बीच खर्च करना पड़ता है। ब्रिटेन में, लीसेस्टर यूनिवर्सिटी जैसे एक अच्छे मेडिकल संस्थान में पढ़ाई के लिए विदेशी छात्रों को पहले दो वर्षों के लिए करीब 23 लाख रुपये से अधिक का शुल्क चुकाना होता है।

इसी लिए दूसरी तरफ, यूक्रेन, चीन, रूस, जॉर्जिया जैसे देशों में मेडिकल डिग्री के लिए समान सुविधाओं के साथ पूरे कोर्स पर 17 लाख रुपये से 45 लाख रुपये के बीच खर्च पड़ता है, यही वजह है कि ये देश भारतीय छात्रों के लिए एक पसंदीदा जगह बने हुए है। इस लिए कोई भी भारतीय यूनिवर्सिटी में पढ़ाई का विकल्प छोड़ने वाले छात्रों और उनके माता-पिता को कोस सकता है, लेकिन वास्तविकता यही है कि जब तक भारत में शिक्षा प्रणाली छात्रों की जरूरतों के अनुरूप नहीं होगी, वे विदेशों का ही रुख करते रहेंगे।

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