खुलासा : इस्तीफे की आड़ में मायावती ने खेला बड़ा दांव, आख़िरी तीर से सोई किस्मत जगाने की कोशिश

मायावती का इस्तीफालखनऊ। राज्यसभा में सांसद पद से मायावती का इस्तीफा देने की खबर लोगों के बीच कौतुहल का विषय बन गई है। दलितों के उत्पीड़न के मुद्दे पर जोर देते हुए उनका भड़कना और फिर झटकते हुए अंदाज में इस्तीफे की बात कह सदन को छोड़कर निकल जाना। ये बेहद ही आवेशपूर्ण कदम बताया जा रहा है। वहीं विशेषज्ञों की माने तो राज्यसभा से इस्तीफा दे मायावती ने बड़ा दांव खेला है। इतना ही नही उनका कहना है कि मंगलवार को जिस समय मानसून सत्र के दौरान राज्यसभा में चर्चा शुरू हुई मायावती का मिजाज शुरुआत से गर्म दिखा। सदन से निकल इस्तीफा देने में उन्होंने शाम तक का समय लिया। यह इस ओर इशारा करता है कि कहीं न कहीं इस कदम के पीछे उनकी सोची समझी सियासी चाल है।

राज्यसभा में भड़कने के बाद मायावती ने सांसद पद से दे दिया इस्तीफा

मंगलवार को जिस समय मानसून सत्र के दौरान राज्यसभा में चर्चा शुरू हुई उस समय शायद ही किसी को इस बात को अंदाजा रहा होगा कि राजनीति की एक नई पटकथा इस सदन में लिखी जाएगी।

सहारनपुर सहित देश के कई हिस्सों में दलितों के उत्पीड़न के मुद्दे को उठाते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती के तेवर शुरू से ही तल्ख़ थे, लेकिन यह तल्खी इस कदर होगी कि वह शाम होते होते इस्तीफा दे देंगी, इसका इल्म शायद ही किसी को रहा हो।

राज्यसभा में चर्चा के दौरान मायावती ने आरोप लगाया कि उन्हें बोलने से रोका जा रहा है, उन्होंने यह भी जोड़ा की देशभर में दलितों पर जुल्म हो रहा है और यहां उनकी आवाज दबाई जा रही है, अगर ऐसा होगा तो वह इस्तीफा दे देंगी और उन्होंने यह किया भी। लेकिन इसके लिए उन्होंने शाम तक का वक्त लिया, राजनीति के तमाम नफा नुकसानों पर सोच विचार कर उन्होंने अपना इस्तीफा राज्यसभा के सभापति उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी को भेजा।

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यह क्षणिक आवेश या समाज की दुर्दशा से उपजी पीड़ा का आक्रोश भर नहीं, मायावती का वो बड़ा दांव है जो उन्होंने दलितों के बीच अपनी खोई जमीन वापस पाने के लिए चला है।

ज्यादा दिन नहीं हुए जब दलित राजनीति के सबसे बड़े गढ़ उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती को राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा झटका लगा था, फरवरी मार्च में हुए विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी 80 सीटों से सिमटकर मात्र 19 सीटों वाली पार्टी बनकर रह गई थीं।

यह उस झटके से भी बड़ा था जब लोकसभा चुनावों में उन्हें देशभर में एक भी सीट नहीं मिली थी। लेकिन तब मायावती के पास सब्र करने की एक बड़ी वजह ये थी कि कोई सीट न पाने के बावजूद भी उनकी बसपा वोटों के हिसाब से देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई थी। लेकिन विधानसभा चुनावों में लगे झटके ने उन्हें झकझोर कर रख दिया।

उन्हें भी अपने हाथ से पार्टी के सबसे बड़े वोट बैंक दलितों के खिसकने का डर सताने लगा था। जो शायद काफी हद तक उनसे छिटक भी गए थे, जिनके भाजपा के पाले में जाने का दावा किया जा रहा था।

इसके अलावा भीम आर्मी जैसे छोटे संगठन भी बसपा के लिए चुनौती बन गए थे जिन्हें काफी कम समय में बहुत ज्यादा लोकप्रियता मिली। खासकर दलित युवाओं ने जिस कदर भीम आर्मी को हाथों हाथ लिया उसने भी मायावती की नींद उड़ाई हुई थी।

लोकसभा चुनावों में मिली हार ने मायावती को इसी मुगालते में रखा की मोदी की लहर में जहां पूरा देश बह रहा था वहां दलित भी उससे खुद को अलग नहीं रख पाए।

उन्हें उम्मीद थी कि मोदी लहर में खोया उनका वोट बैंक विधानसभा चुनावों में दोबारा उनकी ओर लौट आएगा। लेकिन यहां भी वह मुगालते में रहीं और पीएम मोदी के चेहरे पर दलितों ने यूपी में भी बसपा के हाथी को छोड़ भाजपा के कमल को थाम लिया।

यह मायावती के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं ‌था। इसके बाद जैसे वह सोई तंद्रा से जागी और दलितों को दोबारा जोड़ने की कवायद में लग गईं।

उन्हें तलाश थी तो ऐसे बड़े मुद्दे की जो दोबारा उन्हें अपने कोर वोटबैंक के नजदीक ला सके। सहारनपुर के शब्बीर कांड के रूप में उन्हें यह मौका मिला, जिसे उन्होंने हाथों हाथ लिया। जहां ठाकुरों और दलितों के झगड़े में कई दलितों के घर फूंक दिए गए और उन्होंने पुलिस प्रशासन का भी निशाना बना। हालांकि इसके पीछे सहारनपुर की भीम आर्मी भी थी जिसकी वजह से प्रशासन और दलितों में ठन गई थी।

संसद में भी मायावती ने इस मुद्दे को पुरजोर तरीके से उठाया तो पीड़ित दलितों से मिलने के लिए वह सहारनपुर भी पहुंच गईं। लेकिन दलितों का दिल जीतने के लिए शायद सिर्फ इतना ही काफी नहीं था।

इसलिए उन्हें एक और बड़े दांव की जरूरत थी, जो आज उन्होंने राज्यसभा में चल दिया। हालांकि ये दांव कितना कारगर साबित होगा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन इतना तो तय है कि दलित अस्मिता के नाम पर उन्होंने खुद को शहीद घोषित करने की तैयारी तो कर ली है।

बता दें कि इस पूरे प्रकरण के बीच ख़ास बात यह है कि राज्यसभा में मायावती का कार्यकाल अगले साल समाप्त होने वाला है।

इसलिए यह माना जा रहा है कि समय समाप्ति को देखते हुए उन्होंने अपनी किस्मत और खोई हुए वोटबैंक को हासिल करने के लिए यह बड़ा कदम उठाया हो।

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