मकर संक्रांति मनाए जाने का कारण?

हिन्दू धर्म में सूर्य को देवता माना जाता है और उनसे जुड़े कई प्रमुख त्योहारों को मनाने की मान्यता भी है। मकर संक्रांति भी उन्हीं में से एक है। शीत ऋतु के पौष मास में भगवान सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करके उतरायण करते हैं इसीलिए इस संक्रांति को मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सूर्य दक्षिण की बजाय उत्तर को गमन करने लग जाता है। जब तक सूर्य पूर्व से दक्षिण की ओर गमन करता है तब तक उसकी किरणों का असर खराब माना गया है लेकिन जब वह पूर्व से उत्तर की ओर गमन करने लगता है तब उसकी किरणें सेहत और शांति को बढ़ावा देती हैं। हर साल 14 जनवरी को मकर संक्रांति मनाई जाती है, लेकिन पिछले कुछ सालों से गणनाओं में आए कुछ परिवर्तनों के कारण अब इसे 15 जनवरी को भी मनाया जाने लगा है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव उत्तरायण होते हैं और खरमास समाप्त हो जाता है। खरमास में कोई भी शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं इसलिए इसके समाप्त होते ही सभी प्रकार के शुभ कार्यों का शुभारंभ हो जाता है। यह त्यौहार प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और फसलों से जुड़ा भी है। मकर संक्रांति के दिन से ऋतु में खास परिवर्तन देखने को मिलता है। क्योंकि सूर्य को ही प्रकृति का कारक माना जाता है इसीलिए भी मकर संक्रांति के दिन मुख्य तौर पर सूर्य की पूजा की जाती है।

मकर संक्रांति के दिन दान और स्नान का विशेष महत्व है। हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार इस दिन को देवताओं का दिन भी माना गया है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन जो भी दान-पुण्य करता है उसे उसका सौ गुना बढ़कर वापस मिलता है। इस दिन शुद्ध घी, तिल, गुण एवं कंबल दान में देना अच्छा माना जाता है।

महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति के दिन का ही चुनाव किया था। ऐसा भी कहा जाता है कि मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुए सागर में जाकर मिली थीं।

श्रीमद्भागवत गीता के मुताबिक, शनि महाराज का अपने पिता सूर्य देव से बैर था क्योंकि सूर्य देव ने उनकी माता छाया को अपनी दूसरी पत्नी संज्ञा के पुत्र यमराज से भेद-भाव करते देख लिया था। इस बात से नाराज होकर सूर्यदेव ने छाया और उनके पुत्र शनि देव को अपने से अलग कर दिया था, इससे शनिदेव और छाया ने उन्हें कुष्ठ रोग का श्राप दे दिया था। पिता सूर्य देव को कुष्ठ रोग से पीड़ित देखकर यमराज काफी दुखी हुए थे और सूर्य देवता को कुष्ठ रोग से मुक्त करवाने के लिए तपस्या की लेकिन सूर्य देव ने क्रोधित होकर शनि महाराज के घर कुंभ जिसे शनि की राशि कहा जाता है उसे जला दिया इससे शनि और उनकी माता छाया को कष्ट का सामना करना पड़ा। यमराज ने अपनी सौतेली माता और भाई शनि को कष्ट में देखकर उनके कल्याण के लिए पिता सूर्य को काफी समझाया तब जाकर सूर्य देव शनि के घर कुंभ में पहुंचे। कुंभ राशि में सब कुछ जला हुआ था। उस समय शनिदेव के पास तिल के अलावा कुछ नहीं था इसलिए उन्होंने काले तिल से सूर्य देव की पूजा की। शनि की पूजा से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने शनि को आशीर्वाद दिया कि शनि का दूसरा घर मकर राशि मेरे आने पर धन-धान्य से भर जाएगा। तिल के कारण ही शनि को उनका वैभव फिर से प्राप्त हुआ था इसलिए शनिदेव को तिल बहुत प्रिय है। इसी समय से मकर संक्रांति पर तिल से सूर्य एवं शनि की पूजा का नियम शुरू हुआ।

विभिन्न राज्यों में मकर संक्रांति का त्यौहार अलग-अलग नामों से मनाया जाता है:
• उत्तर प्रदेश में इसे खिचड़ी भी कहा जाता है। सूर्य भगवान की पूजा करके चावल और दाल की खिचड़ी दान करके खाई भी जाती है।
• गुजरात और राजस्थान में यह उत्तरायण पर्व के रूप में मनाया जाता है। वहां पतंग उत्सव का भी आयोजन होता है।
• पंजाब में मकर संक्रांति के 1 दिन पहले लोहड़ी पर्व के रूप में मनाया जाता है जिसमें काफी धूमधाम से समारोह का आयोजन किया जाता है।
• असम में इस पर्व को भोगली बिहू के नाम से मनाया जाता है।
• पश्चिम बंगाल में इस पर्व में हुगली नदी पर गंगासागर मेले का आयोजन किया जाता है।
• महाराष्ट्र में इस पर्व पर लोग गजक और तिल के लड्डू खाते और एक दूसरे को भेज देते हैं।
• तमिलनाडु में यह पर्व पोंगल के नाम से मनाया जाता है। वहां खी में दाल-चावल की खिचड़ी खाई जाती है।
• आंध्र प्रदेश में संक्रांति के नाम से 3 दिन का पर्व मनाया जाता है।

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