प्रेरक-प्रसंग: ” हीरा” बनने की कहानी

हम उदास हो कमरे में बैठे थे तभी पापा माँ दोनों हँसते हुए आये और बोले — “डरो नहीं हमने तुम सब से वो सारी बाते झूठ कही थी लेकिन बिधाता ने मेरे उस झूठ को सच कर दिया है आज से ये सचमुच हमारा बेटा और तुम सब का भाई है तुम सब इसको भी उतना ही प्यार और आदर देना जितना सगे बड़े भाई को देते हो।” फिर पापा ने सारी बात बताई, फिर हम सब जाकर उनके गले लग गए और उन्हें दिल से अपना भाई स्वीकार कर लिया,फिर हम सब ने साथ खाना खाया।

हीरा" बनने की कहानी

वो दिन है और आज का दिन ना हम ने कभी अनिल भैया को पराया समझा ना अनिल भैया ने हमे। उन्होंने भाई होने का हर कर्तव्य निभाया और प्यार भी भरपूर दिया। हमारी मदद तो वो भाई बहन दोनों की तरह करते थे। बाहर का कोई काम हो या हम बहनो की रखवाली करनी हो तो भाई बन जाते थे और अगर घर में कोई काम बढ़ जाये तो बहन की तरह रसोई में भी मदद करते थे।खाना बनाने के शौकीन थे इस कारण किचन में कई बार सब्जी बनाने को लेकर हम दोनों की लड़ाई भी हो जाती थी। वैसे भी हम दोनों हम उम्र थे तो हम दोनों में कभी पटती नहीं थी लेकिन प्यार भी इतना था कि एक घंटा भी एक दूसरे से बात किये वगैर रह भी नहीं सकते थे।

भैया 10 वी पास करके आये थे और मैं 10 वी में थी।दोनों ही किशोरावस्था में थे। कॉलोनी वालो को जब पापा के इस फैसले का पता चला तो वो परेशान हो पापा को समझने लगे कि -सिन्हा जी ये आपने ठीक नहीं किया आप के घर में सायानी लड़की है और लड़का भी सायना है कल को कुछ ऊंचनीच हो गया तो ?पापा ने जबाब दिया -उस लड़के को तो मैं अभी ठीक से नहीं जानता लेकिन मुझे अपनी बेटी पर पूरा भरोसा है वो हमारे इस फैसले को कभी शर्मसार नहीं करेगी। हम बहन -भाई ने पापा का वो मान रखा ,भगवान ने भी हमारा भरपुर साथ दिया।अनिल भैया सूरत शक्ल से भी हम भाई बहनो से बिलकुल मिलते थे। हमारे बड़ी भइया और वो दोनों जब साथ चलते थे तो कोई ये नहीं कह सकता था कि दोनों एक माँ के बच्चे नहीं है। माँ पापा तो ये कहते थे की पूर्बजन्म का मेरा बिछड़ा बेटा है। माँ तो उन्हें हमेशा अपना अच्छा बेटा कह कर ही बुलाती थी। आज भी हम भाई बहन माँ को छेड़ते है तो कहते है कि -आप का अच्छा बेटा तो अनिल भइया है न। माँ हँस कर कहती है -बेशक है।

अनिल भइया ने कड़ी मेहनत और लगन से पढाई की और M.A किया। थोड़े दिन तो उनके संघर्ष के रहे, पापा के मना करने पर भी वो अपने ऊपर के खर्चे के लिए ट्युसन पढ़ते थे वो पापा पर ज्यादा बोझ नहीं डालते थे। क्युकि उन्हें लेकर हम पांच भाई बहन और दादा दादी सब की जिम्मेदारी पापा पर ही थी। ये बात वो अच्छे से समझते थे। पापा ने उनकी मदद कर टुयुशन सेंटर खोल दिया।

लेकिन जल्द ही उनकी मेहनत ने रंग लाया और वो लोक सेवा आयोग की परीक्षा में पास किये और आज वो एक सफल अंचल अधिकारी ( C.O ) के रूप में कार्यरत है।जब तक हम उस कॉलोनी में रहे सोना हमारे घर काम करती रही एक सदस्य की तरह। फिर धीरे धीरे हम सब बड़े हो गये अपने अपने मज़िल की तरफ चल पड़े, सब की अलग अलग शहर में नौकरी हो गई, हम बहनो की शादी हो गई,और हम एक दूसरे से बिछड़ते चले गये। “बिछड़ना “यानि शारीरिक रूप से बिछड़ गये मानसिक रूप से हम आज भी जुड़े है। हमारा प्यार वैसा ही है। साल दो साल पर किसी अवसर पर हम मिलते है ,हमारे बच्चे भी आपस में सगे भाई बहन की तरह ही रहते है। अनिल भइया आज भी हर सुख दुःख में हमारे साथ है। भाभी भी बहुत अच्छी है। पापा को जब डॉक्टरों ने जबाब दे दिया और हमने भैया को खबर की तो ऑफिस से छुट्टी नहीं मिलने के वावजूद वो अपने नौकरी को खतरे में डाल दिल्ली आये ,आर्धिक रूप से भी हमारी मदद की।

हमारी सोना आज अपने कामयाब बेटे -बहु और पोते पोतियो के साथ एक सुखी जीवन व्यतीत कर रही है। लेकिन आज भी वो अपना अतीत नहीं भूली,कभी भी “अफसर बेटे की माँ ” होने का घमंड नहीं किया। आज भी जब वो हमारे घर आती है तो माँ उनके लिए मालिकन ही है ,मना करने के वावजूद आज भी वो किचन में जा कर भाभियो का हाथ बटाने लगती है। थोड़ा सा हमने ये बोला नहीं कि सर दर्द हो रहा है या पैर दर्द हो रहा है तेल ले कर मालिस करने आ जाती है। हमे उन्हें कसम दे कर रोकना पड़ता है।

सोना जो तपते धुप में अकेली एक बृक्ष के समान खड़ी थी उन्होंने अपने प्यार और व्यवहार से हमे अपना बनाया। उन्ही के कारण पापा माँ ने उनकी मदद की और उनके बेटे को भी अपना बनाया , जो एक दिन हीरा बन कर चमका और अपनी माँ सोना के तपस्या को पूरा कर उनके जीवन में सुनहरी धुप बन रौशनी ही रौशनी बिखेर दी। ये थी हमारी” सोना”की कहानी , जो आज भी हमारे साथ है भगवान उनका साथ बनाये रखे।

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