दूसरा मंगल : हनुमान की इस धरती पर दूर हो जाते हैं सारे कष्‍ट

नैमिषारण्‍य तीर्थहर इंसान सुखी रहना चाहता है लेकिन कई बार यह संभव नहीं होता। हमारा जीवन ग्रहों के फेर में फंसा हुआ है। हर घटना चाहे वह सुखद हो या दुखद, ग्रहों की चाल पर निर्भर करती है। अक्‍सर लोगों की शिकायत होती है कि बहुत मेहनत के बाद भी जीवन में सुख नहीं है, धन नहीं है, मनचाही नौकरी नहीं है। लेकिन इन कठिनाइयों से मुक्ति का भी एक रास्ता है। यह रास्ता आपको यूपी के सीतापुर जिले मे ले जाता है। यहां बसते हैं पवनपुत्र हनुमान। आज ज्येष्‍ठ माह के दूसरे मंगल को चलिए चलते हैं प्रसिद्ध नैमिषारण्‍य तीर्थ के हनुमान मंदिर।

नैमिषारण्‍य तीर्थ आने पर मिलेगी कष्‍टों से मुक्ति

लखनऊ से 100 किमी दूर सीतापुर जिले में स्थित नैमिषारण्य का हनुमान मंदिर भारत में श्री हनुमान जी के मुख्य मंदिरों में विशेष स्थान रखता है। यहाँ स्थित बालाजी की मूर्ति बलिष्ठ और लाल रंग में है। यह हनुमान जी का सिद्धि पीठ हैं।

इस बारे में ज्‍योतिषाचार्य सुरेश दुबे बताते हैं, ‘मान्‍यता है कि नैमिषारण्य वो जगह है, जहाँ से हनुमान जी ने पाताल लोक में प्रवेश कर भगवान श्री राम और लक्ष्मण को अहिरावन से बचाकर निकाल लाये थे। इसी नैमिषारण्य में इन तीनों ने महान संतों के दर्शन किये और पुनः रावण से युद्ध करने लंका प्रस्थान किया था।’

इस मंदिर में दक्षिण मुखी हनुमान हैं। जिसकी कुंडली में शनि, राहु, केतु, मंगल ग्रह होते हैं, उनका यहां दर्शन और हनुमान जी को लाल चोला चढ़ाने से ग्रह शांत हो जाते हैं और जीवन में सफलता और समृद्धि आती है।

नैमिषारण्‍य तीर्थ गोमती नदी का तटवर्ती एक प्राचीन तीर्थस्थल है। पुराणों तथा महाभारत में वर्णित नैमिषारण्य वह पुण्य स्थान है, जहाँ 88 सहत्र ऋषीश्वरों को वेदव्यास के शिष्य सूत ने महाभारत तथा पुराणों की कथाएँ सुनाई थीं-
‘लोमहर्षणपुत्र उपश्रवा: सौति: पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेद्वदिशवार्षिके सत्रे, सुखासीनानभ्यगच्छम् ब्रह्मर्षीन् संशितव्रतान् विनयावनतो भूत्वा कदाचित् सूतनंदन:। तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिषारण्यवासिनाम्, चित्रा: श्रोतुत कथास्तत्र परिवव्रस्तुपस्विन’
‘नैमिष’ नाम की व्युत्पत्ति के विषय में वराह पुराण में यह निर्देश हैं-
‘एवंकृत्वा ततो देवो मुनिं गोरमुखं तदा, उवाच निमिषेणोदं निहतं दानवं बलम्। अरण्येऽस्मिं स्ततस्त्वेतन्नैमिषारण्य संज्ञितम्’
अर्थात् ऐसा करके उस समय भगवान ने गौरमुख मुनि से कहा कि मैंने एक निमिष में ही इस दानव सेना का संहार किया है, इसीलिए (भविष्य में) इस अरण्य को लोग नैमिषारण्य कहेंगे।

वाल्मीकि रामायण से ज्ञात होता है कि यह पवित्र स्थली गोमती नदी के तट पर स्थित थी, जैसा कि आज भी हैं- ‘यज्ञवाटश्च सुमहानगोमत्यानैमिषैवने’। ‘ततो भ्यगच्छत् काकुत्स्थ: सह सैन्येन नैमिषम्’ में श्रीराम का अश्वमेध यज्ञ के लिए नैमिषारण्य जाने का उल्लेख है। रघुवंश में भी नैमिष का वर्णन है- ‘शिश्रिये श्रुतवतामपश्चिम् पश्चिमे वयसिनैमिष वशी’- जिससे अयोध्या के नरेशों का वृद्धावस्था में नैमिषारण्य जाकर वानप्रस्थाश्रम में प्रविष्ट होने की परम्परा का पता चलता है।

नैमिष नामकरण
इस तीर्थस्थल के बारे में कहा जाता है कि महर्षि शौनक के मन में दीर्घकालव्यापी ज्ञानसत्र करने की इच्छा थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने उन्हें एक चक्र दिया और कहा कि इसे चलाते हुए चले जाओ; जहाँ पर इस चक्र की नेमि (परिधि) गिर जाए, उसी स्थल को पवित्र समझना और वहीं आश्रम बनाकर ज्ञानसत्र करना। शौनक के साथ अठासी (88) सहस्र ऋषि थे। वे सब उस चक्र के पीछे घूमने लगे। गोमती नदी के किनारे एक वन में चक्र की नेमि गिर गई और वहीं पर वह चक्र भूमि में प्रवेश कर गया। चक्र की नेमि गिरने से वह क्षेत्र नैमिष कहा गया। इसी को नैमिषारण्य कहते हैं।

प्राचीन स्थिति

पुराणों में नैमिषारण्‍य तीर्थ का बहुधा उल्लेख मिलता है। जब भी कोई धार्मिक समस्या उत्पन्न होती थी, उसके समाधान के लिए ऋषिगण यहाँ एकत्र होते थे। वैदिक ग्रन्थों के कतिपय उल्लेखों में प्राचीन नैमिष वन की स्थिति सरस्वती नदी के तट पर कुरुक्षेत्र के समीप भी मानी गई है।

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