कुदरत का अचंभा है चंबा, मशहूर हैं ये पांच आस्था के केंद्र
अंग्रेजी शासन के समय सन 1854 में अस्तित्व में आया था चंबा स्थित यह पर्यटन स्थल। चंबा से यह 192 किमी दूर है। हिमाचल के कुछेक बेहद खूबसूरत पर्यटन स्थल में से एक है जहां खूबसूरत कुदरती नजारों के बीच साहसिक पर्यटन का भी काफी स्कोप हैं। प्राचीन मंदिर औपनिवेशिक इमारतें माल रोड चर्च आदि में से कुछ को यादगार विरासतों में शुमार कर दिया गया है। चंबा अपने आकर्षक सौंदर्य से लोगों को अपनी ओर खींचता है। पर यहां के पांच प्रमुख स्थान हैं जो अलग अलग तरह से अपनी आस्था के चलते लोगों को आकर्षित करते हैं।
लक्ष्मीनारायण मंदिर की भव्यता
यह मंदिर चंबा के बाजार में स्थित है। इस विशाल मंदिर के परिसर में श्री लक्ष्मी दामोदर मंदिर, महामृत्युंजय मंदिर, श्रीलक्ष्मीनाथ मंदिर, श्रीदुर्गा मंदिर, गौरी शंकर महादेव मंदिर, श्रीचंद्रगुप्त महादेव मंदिर और राधाकृष्ण मंदिर हैं। इस मंदिर को 10वीं सदी में राजा साहिल वर्मन ने बनवाया था।यहां के मुख्य द्वार पर विष्णु के वाहन गरुड़ की धातु की बनी प्रतिमा विराजमान है। राजा चतर सिंह ने 1678 में मुख्य मंदिर में सोने का आवरण चढ़वाया। मंदिर परिसर काफी भव्य और मनोरम है। कहा जाता है कि पहले यह मंदिर चंबा के चौगान में था। बाद में वर्तमान स्थल पर स्थापित किया गया। इस मंदिर में जो लक्ष्मीनारायण की काश्मीरी बैकुंठ की मूर्ति है वह शोभनीय है। इस मूर्ति के चार मुख और चार हाथ है। मूर्ति की पृष्ठभूमि में तोरण है, जिस पर 10 अवतारों की लीला चित्रित की गई है।
मृत्यु के देवता का भी है मंदिर
यह मंदिर मृत्यु का भी मंदिर माना जाता है। जहां एक तरफ इस मंदिर में भक्ति और श्रद्धा बनी रहती है वहीं दूसरी ओर प्राण देवता यमराज का यह मंदिर जीवन की नश्वरता और मोक्ष की सार्थकता का अहसास कराता है। इसे मौत के देवता का मंदिर भी कहा जाता है। यह मंदिर चंबा से 60 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है। मंदिर की स्थापना का समय ज्ञात नहीं पर चंबा रियासत के राजा मेरू वर्मन ने छठी शताब्दी में इस मंदिर की सीढि़यों का जीर्णोद्धार किया था। यहां की मान्यता है कि मरने के बाद हर व्यक्ति को इस मंदिर में जाना पड़ता है। मंदिर में एक खाली कमरा है जिसे चित्रगुप्त का कमरा माना जाता है। कहते हैं किसी की मौत के बाद धर्मराज महाराज के दूत उस व्यक्ति की आत्मा को चित्रगुप्त के सामने प्रस्तुत करते हैं। इस मंदिर के पुजारी बताते है कि इस समूह मंदिर में सदियों से ही दिन के समय में भी कोई नहीं आता जाता था। इसस मंदिर में बहुत बड़ी-बड़ी झाडियां थी। आप्रकृतिक स्थित में मौत होने से यहां पर पिंडदान किए जाते हैं। साथ ही परिसर में वैतरणी नदी है, जहां गोदान भी किया जाता है। यहां के पुजारी पंडित लक्ष्मण दत्त शर्मा के मुताबिक, ‘मंदिर परिसर में कई बार ऐसी ध्वनियां सुनाई देती हैं, जैसे कोर्ट में बहस हो रही हो’
भद्रकाली या भाली माता का मंदिर
यह काली माता का मंदिर है। इस मंदिर की मान्यता है कि अगर मंदिर में स्थापित मां की प्रतिमा पर पसीना आता है तो समझ लो आपकी मन्नत पूरी हो गई। यह भद्रकाली या भाली माता का मंदिर चांबा जिले के उपमंडल सलूणी से 40 किलोमीटर दूर भलेई गांव में स्थित है। यह ऐतिहासिक मंदिरों में से एक है। यहां ऐसा माना जाता है कि मां जब प्रसन्न होती हैं तो उनकी प्रतिमा से पसीना बहने लगता है। उस वक्त जितने भी श्रद्धालु वहां मौजूद होते हैं, सबकी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।
सूही माता का मंदिर
कहा जाता है कि चंबा बसने के बाद यहां मुख्य समस्या पानी की थी। यहां रानी सुनयना ने पानी के लिए बलिदान दिया था। चंबा का सूही मेला उस देवी की याद दिलाता है, जिसने प्रजा को पानी उपलब्ध कराने के लिए अपना बलिदान दे दिया था। यहां पर पानी की समस्या इतनी विकट थी कि रानी सुनयना को अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा। लोगों को रावी से पानी लाना पड़ता था। समस्या के हल के लिए शहर से कुछ दूरी पर सरोथा नाले से नहर बनाई गई, परंतु पानी चंबा तक नहीं पहुंच पाया। जमीन समतल होने पर भी पानी आगे नहीं जाता था। कहते हैं कि राजा को स्वप्न में दैवी आदेश मिला कि राजपरिवार से किसी की बलि दी जाए तो पानी आ सकता है। जब ये बात रानी सुनयना को मालूम हुई तो उन्होंने बलिदान देना सहर्ष स्वीकार कर लिया। बलिदान को जाते समय रानी ने लाल वस्त्र पहने थे। लाल रंग को स्थानीय बोली में सूहा कहा जाता है। इसी कारण रानी सुनयना का नाम सूही पड़ गया और ये स्थान सूही माता का मंदिर कहलाया। प्रतिवर्ष चैत्र माह में रानी के नाम पर सूहा मेले का आयोजन होता है।
मणिमहेश यात्रा
महादेव की तपस्थली मणिमहेश यात्रा का रोमांच भी लोगों को चंबा जिले की ओर खींच लाता है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई अमरनाथ गुफा से करीब एक हजार फुट अधिक 13,500 फुट है। यहां दुर्गम और पथरीले रास्तों से आने वाले लोगों की संख्या में कमी नहीं आई है। हर साल श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से लेकर राधाष्टमी तक चलनी वाली इस यात्रा का अलग महत्व है। यहां कैलाश चोटी के ठीक नीचे से मणिमहेश गंगा का उद्भव होता है। कैलाश पर्वत की चोटी पर चट्टान के आकार में बने शिवलिंग का इस यात्रा में पूजा की जाती है।