कई दशकों से सोना उगल रही ये नदी, दर्जनों परिवारों की गुजर-बसर का जरिया, आखिर क्या है रहस्य

  • आशीष सिंह
    झारखण्ड की स्वर्णरेखा नदी सदियों से सोना उगल रही है। सोने के टुकड़े साथ में लेकर बहने के कारण इस नदी का नामकरण स्वर्णरेखा नदी हुआ। झारखण्ड के साथ-साथ पश्चिम बंगाल और ओडिशा के भी अलग-अलग हिस्सों में सदियों से हजारो लोंगो की आजीविका चला रही है। ये कोई कहावत नहीं है, बल्कि सच्चाई है की स्वर्णरेखा नदी में सोने के कण मिलते है। नदी के किनारे रहने वाले दर्जनों परिवार की कई पीढ़ियां नदी से सोने के कण बीनने में लगी है।

राजधानी रांची से करीब 16 किलोमीटर दूर नगड़ी गांव के रानीचुआं परिसर स्थित एक छोटे से गढ्ढे से निरंतर पानी की धार निकल रही है। यहां से निकलने के बाद कुछ दूर आगे बढ़ने पर ये झारखण्ड की जीवनदायनी स्वर्णरेखा नदी का रूप ले लेती है। कई दसको से बहने वाली इस नदी का अस्तित्व किसी अन्य दूसरी नदियों में जाकर ख़त्म नहीं होता। यह नदी आगे जाकर बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है।

नदी के आस-पास रहने वाले परिवारों से बातचीत करने से यह जानकारी मिलती है कि नदी की रेत से निकलने वाले सोने के कण गेंहू के दाने के बराबर होते है। ग्रामीणों के मुताबिक, एक दिन में एक शख्स सिर्फ एक या दो सोने का कण ही खोज पाता है। बाज़ार में इसका 200 से 400 रुपये के बिच मूल्य मिलता है और औसतन एक महीने में 5 -7 हजार रुपये मिल जाते है। स्थानीय लोगो का कहना है कि रेत में सोने के कण कहां से आते है , यह आज भी रहस्य बना हुआ है। स्थानीय लोगो का कहना है कि कई बार सरकारी स्तर पर भी सोने के कण निकालने का पता लगाने की कोशिश की गई, लेकिन स्पष्ट वजह सामने नहीं आ सकी।

ग्रामीण क्षेत्र के बुजुर्गो के मुताबिक नदीं के आस-पास के इलाको में संभवतः सोना के कोई खदान है और नदी उन तमाम चट्टानों के बिच से होकर गुजरती है। इसलिए घर्षण की वजह से सोने के कण इसमें घुल जाते है। अपने उद्दम स्थल नगड़ी के रानीचुआं से निकलकर सवर्णरेखा नदी करीब 474 किलोमीटर की दुरी तय करती है। इस दौरान उद्दम स्थल से निकलने के बाद यह नदी किसी भी दूसरी नदी में जाकर नहीं मिलती है , बल्कि दर्जनों छोटी-बड़ी नदियां स्वर्णरेखा नदी में आकर मिलती है। यह नदी सीधे बंगाल की खाड़ी में जाकर गिरती है।

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