
डर एक ऐसा छोटा शब्द है, जो अच्छे-अच्छों के होश उड़ाने के लिए काफी होता है। हमारी इस भावना को साहित्य और सिनेमा में न जाने कितनी बार अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त किया गया है। हॉरर फिल्म देखकर डरना तो किसी के लिए भी स्वाभाविक है, लेकिन जब कोई इंसान सामाजिक माहौल से इतना डरने लगे कि हमेशा उसे अकेलापन रास आए तो यह एगोराफोबिया का लक्षण हो सकता है।
यह एक तरह का सोशल फोबिया है, जो तनाव और चिंता से जुडा है। एगोराफोबिया एक मनोवैज्ञानिक बीमारी है। सरल शब्दों में कहें तो इसमें बाहर की दुनिया से भय लगता है। एगोरा ग्रीक शब्द ” एगोरा ” से बना है जिसका मतलब होता है गैदरिंग प्लेज और सार्वजनिक जगह। फोबिया मतलब डर। जिससे बनता है एगोराफोबिया और जिसका मतलब होता है सार्वजिनिक जगह में जाने से डर लगना।
एगरोफोबिया के लक्षण
किसी सार्वजनिक जगह में अकेले होने से डरना।
भीड़ में अकेले होने से डरना।
ट्रेन में सफर करने या सीढ़ी चढ़ने में डर लगना।
मददरहित महसूस करना।
किसी के ऊपर पूरी तरह से निर्भर हो जाना।
घर में अकेले रहने तक से डरना।
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कैसे करें इसकी पहचान
इस समस्या से पीडित व्यक्ति को अपने आसपास के वातावरण से जुडी किसी भी सामाजिक स्थिति का सामना करने में घबराहट हो सकती है। ऐसे लोगों को आमतौर पर भीड भरे सार्वजनिक स्थलों, जैसे शॉपिंग मॉल, पार्टी, सिनेमा हॉल या रेलवे स्टेशन जैसी जगहों पर जाते हुए घबराहट होती है। ऐसे लोगों को छोटी दूरी की यात्रा करने में भी बहुत डर लगता है।
ऐसी स्थितियों में थोडी-बहुत घबराहट होना तो स्वाभाविक है, लेकिन इस समस्या से पीड़ित व्यक्ति ऐसी जगहों पर जाने से हमेशा बचता है। भीड वाली जगहों पर गला सूखना, दिल की धडकन और सांसों की गति बढना, ज्यादा पसीना निकलना और हाथ-पैर ठंडे पडना आदि इसके प्रमुख लक्षण हैं। यहां तक कि इस समस्या से ग्रस्त लोग घबराहट की वजह से भीड वाली जगहों पर बेहोश भी हो जाते हैं। यह समस्या कुछ हद तक सेपरेशन एंग्जायटी से भी जुडी है। इसमें व्यक्ति करीबी लोगों या आसपास के वातावरण को ही अपना सुरक्षा कवच बना लेता है और किसी भी हाल में उससे बाहर निकलने को तैयार नहीं होता। वैसे तो यह समस्या किसी को भी हो सकती है, लेकिन 20 से 40 वर्ष के आयु वर्ग के लोगों और स्त्रियों में इसके लक्षण ज्यादा देखने को मिलते हैं।
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क्या हैं के एगरोफोबिया होने के कारण
अभी तक इस समस्या के कारणों के बारे में स्पष्ट रूप से पता नहीं लगाया जा सका है। फिर भी आत्मविश्वास की कमी, भीड से जुडा बचपन का कोई बुरा अनुभव और नकारात्मक विचार इस मनोरोग के लिए जिम्मेदार होते हैं। कई बार मस्तिष्क के न्यूरोट्रांस्मीटर की संरचना में बदलाव आने से भी लोगों को छोटी-छोटी बातों से घबराहट होने लगती है। आनुवंशिकता की वजह से भी व्यक्ति को यह समस्या हो सकती है।
उपचार के आसान तरीके
अगर सही समय पर उपचार कराया जाए तो यह समस्या आसानी से हल हो जाती है। इसमें दवाओं और काउंसलिंग के जरिये मरीज का उपचार किया जाता है। बिहेवियर थेरेपी के जरिये उसका आत्मविश्वास बढाने की कोशिश की जाती है। आमतौर पर छह माह से एक साल के भीतर व्यक्ति की मानसिक अवस्था सामान्य हो जाती है। डॉ. शर्मा बताते हैं कि ऐसी स्थिति में परिवार के सदस्यों और अन्य लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। अगर आपके परिवार में कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई दे, जो सार्वजनिक स्थलों पर जाने से हमेशा कतराए या वहां जाने के बाद उसकी तबीयत बिगड जाती हो तो उसके लिए किसी विशेषज्ञ से सलाह लेनी चाहिए। उपचार के दौरान परिवार के सदस्यों को मरीज का मनोबल बढाने की कोशिश करनी चाहिए।