इसे अंधविश्वास कहें या परंपरा, यूपी के इस जिले में चिता की लकड़ी पर सेंकी जाती हैं रोटियां

रिपोर्ट- काशी नाथ शुक्ला

वाराणासी। भले ही ये बात सुनने में कितनी ही विचित्र लगती हो लेकिन ये पूरी तरह से सच है। ये पढ़ने में भले ही अटपटी लगे लेकिन यह सच्चाई है काशी के एक दूसरे राजा कहे जाने वाले ‘डोमराजा’ परिवार की।

हम बात कर रहे हैं काशी के मणिकर्णिका घाट पर सदियों से राज करने वाले डोमराजा के परिवार की। काशी के ‘डोमराज’ परिवार में हजारों साल से चिता की लकड़ियों पर ही खाना पकाने और खाने की परंपरा रही है। न कोई शानो-शौकत और ना ही कोई राजपाट। मगर इस राजा के घर में आखिर क्यों बननी हैं चिता की लकड़ियों पर रसोई।

काशी में मोक्ष की प्राप्ति के लिए लोग मणिकर्णिका महाश्मशान पर आते हैं। कहते हैं यह विश्वम का अकेला शमशान घाट है जहां चिता की आग अनादिकाल से आज तक नहीं बुझी है। इसी चिता की लकड़ियों से काशी के महाशमशान के मालिक डोमराज घराने के सदस्य सदियों से खाना पकाते आ रहे हैं।

मौजूदा डोम राजा जगदीश चौधरी ने बताया कि हमारा 5000 लोगों का बड़ा परिवार है। सभी घर में तीनों टाइम चूल्हे की आग के लिए जलती हुई चिताओं से जलती हुई लकड़ियां जाती हैं। उसी पर हम खाना बनाते हैं और खातें हैं। भगवान् की कृपा से हमारे घर में सभी निरोग हैं।वहीँ डॉम राजा के परिवार का मानना है कि ये प्रसाद है इसलिए ये परंपरा के तौर पर युगों से चला आ रहा है। और आगे भी चलता रहेगा।

डोम राज परिवार के अलावा मांझी समाज के कुछ लोगों के यहाँ भी चिता की लकड़ी पर खाना बनता है। मणिकर्णिका घाट पर रहने वाले लल्लू मांझी ने बताया कि 40 साल से जलती चिता से लकड़ी लाकर खाना बनाते हैं। लल्लू मांझी ने बताया कि आजतक किसी प्रकार की दिक्कत नहीं हुई ये भगवान् शिव का प्रसाद है।

मणिकर्णिका मह्श्मशान पर राजा का अस्तित्व कहां से आया यह जानने के लिए हमने वहां मौजूद लोगों से इस बारे में जाना। अनादिकाल में जब काशी का नाम आनन्दवन हुआ करता था उस समय भगवान् शंकर माता पार्वती के साथ यहां भ्रमण के लिए आये थे और मणिकर्णिका घाट पर स्थित कुंड को उन्होंने अपनी जटाओं से भरा था।

जिसके बाद माता पार्वती ने इसमें स्नान किया था। स्नान के समय माता पार्वती का कुंडल इसमें गिर गया था। जिसे हमारे पूर्वज कल्लू महराज ने उठा लिया था। भगवान् शंकर के क्रोधित होने के बावजूद कल्लूह ने कुंडल के बारे में नहीं बताया तो उन्होंने उसे और उसकी आने वाली सम्पूर्ण नस्लों को चंडाल होने का श्राप दिया। तब से हम शमशान वासी हो गये और हमारे ही हाथों से चिताओं को अग्नि मिलती रही। यह बातें काशी के इतिहास और पुराणों में भी इंगित है।

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काशी हिन्दू विश्वद्यालय के इतिहास विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ राजीव कुमार श्रीवास्तव के अनुसार पुरानी मान्यता है कि सतयुग में भारत के प्रतापी चक्रवर्ती सम्राट सत्यववादी महाराजा हरिश्चंद्र को विपत्तिक के समय डोम परिवार के पहले वंशज कल्लूम डोम ने खरीद लिया था। जिसके बाद एक महाराज को खरीदने के कारण कल्लू डोम को भी महाराज की उपाधी दी गई। इसके बाद से ही उनके वंशजों को ‘डोमराज’ घराना कहा जाने लगा।

बकौल प्रोफेसर श्रीवास्तव, ”राजा हरिशचंद्र ने कल्लू डोम के यहां नौकरी की थी। जिसके यहां स्वयं राजा ने नौकरी की हो तो उसकी उपाधि खुद ब खुद महाराजा की हो जाती है। राजा हरिश्चंद्र जब सत्ता दान कर राजनितिक करण की वजह से नौकरी के लिए भटक रहे थे उस वक्त काशी में उनकी मुलाकात कल्लू डोम से हुई।

तब कल्लू डोम ने अपने यहां राजा हरिश्चंद्र को नौकरी पर रखा। तब से कल्लू डोम के परिवार को उस समय के राजा की उपाधि मिल गई जो आज तक चली आ रही हैं।

तब से लेकर काशी में दो राजा हुए एक तो काशीनरेश जो राज्य की राजनीति देखते थे। वहीं दूसरे थे डोमराजा जिनके अधीन महा शमशान है। मान्यता यह है कि राजा तो आपको राजनीती करण से मुक्ति दे सकता है।

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लेकिन महाशमशान आपको प्रत्येक व्यसन से मुक्ति प्रदान करता हैं। पहले के समय में जितनी भी राज परिवार थे सब में बदलाव आया लेकिन सिर्फ एक कल्लू डोम का राज परिवार ऐसा हैं जो अभी तक वैसे ही कायम है, जिसने सदियों से लेकर आज तक अपनी परंपरा का त्यावग नहीं किया। आज भी डोम राजा के परिवार की महिलाएं घरों से बिना घूंघट के बाहर नहीं निकलती हैं।

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