मैथिली निर्वासनः नारी-व्यथा की प्रस्तुति
राम कथा का मूल स्रोत आदि कवि वाल्मीकि की रचना रामायण है। इसके बाद विभिन्न भाषाओं में इस विषय पर लेखन की कभी समाप्त न होने वाली परंपरा चल रही है। संस्कृत के आचार्य और कवि डा. वैजनाथ पाण्डेय ने मैथिली निर्वासन में पति की विवशता और पत्नी की व्यथा को दर्शाया है। साथ ही यह दिखाया गया कि लोक मत का कितना महत्व होता है।
लोकमत सबसे प्रबल प्रमाण होता है, शायद यही कारण है कि डॉ. बैजनाथ पाण्डेय ने इस विषय को चुना। तीन सौ चौरासी पेज के इस काव्य ग्रन्थ में राम, लक्ष्मण और सीता जी के अन्तर्द्वन्द्वों को चित्रित किया गया है। राजाराम का अन्तर्द्वन्द्व दिखाते हुए कवि कहता है –
नृपदि-सुपद पर बैठा भूपति
भले सोच ले ईश्वर मैं हूॅ।..
‘अंगारों पर चलते रहना,से भी दुर्गम
विष पी-पीकर जीते रहना।
नाटकीय विधा में लिखे गये इस काव्य ग्रंथ में सूत्रघार व नटी का संवाद है। नाटक की रोचक शुरूआत होती है। सूत्रघार कहता है।
कथा पुरानी रामचन्द्र के
उत्तर जीवन की है, तुमको
नए रूप में प्रस्तुत करना।
देखो, कहीं न्यूनता आवे नहीं,
सभा यह विज्ञ जनों की।
नटी उत्तर देती है-
अपना काम
प्रयोगधर्म को भली भॉति प्रस्तुत करना है।
हो जाती है व्यर्थ परीक्षा
जनक नन्दिनी तुल्यसती की वाल्मीकि सम कहॉ मिलेगा
सुहृदय?
जिसने राजकोष की अग्नि शिखा को
आश्रम में दे शरण, बनाया
निर्मल गंगा जल सा पावन।
कवि ने नाटक में सूत्रघार व नटी की भूमिका को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। प्रथम अंक का प्रथम दृश्य भी मनोहारी है। तमसा नदी कल-कल करती हुई बह रही है। महर्षि बाल्मीकि अपनी कुटिया से बाहर निकलकर उसे निहार रहे हैं। कुछ दूरी पर क्रौंच -युग्म पर व्याध वाण चलाता है? लोग जानते है कि बाल्मीकि के मुख से विश्व की पहल काव्य यहीं प्रकट हुआ। इसी के बाद देवि सरस्वती आती है –
कवि इसका सुन्दर चित्रण करते है,
शुष्क तपोवन
रसमय उपवन
हुआ तुम्हारा पाकर
आनन्दप्रद स्पर्श मनोरम।
सरस्वती कहती हैं-
तपोपूत मानसी वाणी
निविड तमिस्रा-दिव्य ज्योति हूं।
जगत प्रकाशित मुझसे होता
नवोन्मेषिनी आर्ष शक्ति हूं।
वाल्मीकि पर सरस्वती ने स्वयं कृपा की थी। दृश्य दो में कवि इसका चित्रण करते हैं। लेखन सामग्री वाल्मीकि के सामने है। इसके बाद राम अपने कक्ष में चिन्तामग्न बैठे हैं। सीता का प्रवेश होता है। दोनों के बीच मार्मिक संवाद है। सीता जी राम के मनोभाव को समझने का प्रयास करती हैं। परिस्थिति दृश्य के अंत तक स्पष्ट होने लगती है। वह नियति को स्वीकार करती दिखती है कहती है-
कौन बांध सकता, मुट्ठी में अपनी क्रूर नियति को।
रोक नहंी सकती है कोई काल चक्र की गति को।
सीता की यह व्यथा एक नारी की व्यथा बन जाती है।
बाल्मीकि के मानसिक दृश्य में दूत का राम को दिया संदेश दिखता है-
महाराज! अपनी पत्नी को दिया निकाल अपने ही घर से एक रजक ने। राम करण पूछते हैं तो भद्र कहता है- आयी घर में देररात को दूर गयी थी।
कहा रजक ने -राम नहीं हूं। जिसने रावण अंक सुशोभित….. सीता को शिव गंग बनाया।
दूसरे दृश्य में राम का अन्तर्द्वन्द्व दिखता है। राम कहते हैं
सुमन सेज राज्य लगता है पर उनमें अंगारे
छिपे हुए हैं, पर राजा को लगते हैं अति प्यारे
सीता को समझाते हुए राम कहते हैं-
प्रजा को प्रजा मानता अबिरल जो नहीं नृपति है,
राजा बस सेवक होता है, नहीं पिता, सुत-पति है।
तीसरे दृश्य में राम एकान्त में
बैठे है।
यह कैसा है राजमुकुट जो नृप को सदा जलाया करता सिंहासन पर बैठाकर, वन वन में भटकाया करता।
दृश्य चार मंे राम तीनों भाइयों से मंत्रणा करते हैं। राम का आदेश होता है-
सूर्योदय से पूर्व तुम्हे कल
सीता को रथ पर बैठाकर
वन में छोड़ अकेले उनको तुम्हें लौट आना होगा।
अगले दृश्यों में राम भी व्याकुल हैं। राजधर्म का पालन उन्हें बेचैन बना रहा है। यहां कवि राज धर्म को भी परिभाषित करते हैं।
नृपति वही जो अपनी काया
जान प्रजा की रक्षा करता।
राम ही नहीं जैसे राजभवन के सभी लोग व्याकुल है। उर्मिला, वशिष्ठ, लक्ष्मण का संवाद है। कवि ने उर्मिला को पर्याप्त महत्व दिया। अंक पांच में वन प्रारम्भ होता है। सीता यहां अनभिज्ञ है। लक्ष्मण मौन हैं। अन्ततः सीता को निर्वासन की जानकारी होती है- वह कहती हैं-
जाना मैंने अग्निपरीक्षा अभिनय केवल
संशय बीज जला नहीं था
उस ज्वाला में।
सीता ने महर्षि बाल्मीकि से भी नारी की विवशता इन शब्दों में व्यक्त की है,
मुनिवर मोक्ष चाह रही थी, इस काया से, नर माया से मैं क्या जानूं धर्म-मर्म को, सब कुछ बंद पुरुष मुट्ठी में।
बाद में बाल्मीकि उन्हें धीरज देते है। सीता का प्रश्न कठिन है आज भी प्रासंगिक-
मुनिवर नारी जीत सकेगी
कभी पुरुष की अहंशक्तिको?
डॉ. बैजनाथ पाण्डेय का प्रयास सफल माना जा सकता है। भाषा, शब्दों का चयन प्रभावशाली है। (हिफी)