
नई दिल्ली : 1971 सिर्फ पांचवें लोकसभा चुनाव के लिए ही नहीं बल्कि भारत-पाकिस्तान युद्ध के लिए भी जाना जाता है। यह साल इंदिरा गांधी के लिए बेहद अहम था। इस वक्त तक कांग्रेस के दो फाड़ हो चुके थे। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सारे पुराने दोस्त उनकी बेटी इंदिरा के खिलाफ थे। इंदिरा को कांग्रेस के भीतर से ही चुनौती मिल रही थी। जहां मोरारजी देसाई और कामराज फिर से मैदान में थे।
1967 के आम चुनाव में इंदिरा जहां सिंडिकेट का सूपड़ा साफ करके सत्ता पर काबिज हुई थी वहीं, फिर से कांग्रेस के तौर पर उनके सामने पुराने दुश्मन खड़े थे। चुनावी मैदान में एक तरफ इंदिरा की नई कांग्रेस और दूसरी तरफ पुराने बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं की कांग्रेस थी।
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बता दें की 12 नवंबर 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखा गया गया था। जहां उनपर पार्टी ने अनुशासन के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था। इस कदम से बौखलाईं इंदिरा गांधी ने नई पार्टी कांग्रेस बनाई। सिंडिकेट ने कांग्रेस का नेतृत्व किया।
वहीं इंदिरा गांधी अपने एक नारे ‘गरीबी हटाओ’ की बदौलत फिर से सत्ता में आ गईं। उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस नेे लोकसभा की 545 सीटों में से 352 सीटें जीतीं। जबकि कांग्रेस (ओ) के खाते में सिर्फ 16 सीटें ही आई। भारतीय जनसंघ ने चुनाव में 22 सीटें जीतीं।
जहां सीपीआई ने चुनाव में 23 सीटें जीतीं। जबकि सीपीआईएम के खाते में 25 सीटें आईं। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने 2 सीटें जीतीं जबकि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के खाते में 3 सीटें आईं। स्वतंत्र पार्टी के खाते में सिर्फ 8 सीटें आई। यह चुनाव 27 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में संपन्न हुआ। 518 निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव हुआ। इस चुनाव में कांग्रेस ने इससे पहले के लोकसभा चुनाव के मुकाबले ज्यादा सीटें जीतीं। 1967 के चौथे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ 283 सीटें मिली थीं। 1967 का लोकसभा चुनाव जहां भारतीय राजनीति में इंदिरा के ‘आगाज’ का गवाह था तो यह उनकी ‘शक्ति’ का।
दरअसल यह पहला चुनाव था जब आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस पार्टी दो भागों में बंटी थी। सिंडिकेट से इंदिरा की खटपट पहले से ही चली आ रही थी। सिंडिकेट ने इंदिरा को पार्टी से ही बाहर कर दिया। पुराने बुजुर्ग नेताओं की कांग्रेस और इंदिरा की कांग्रेस चुनाव में आमने सामने थी। कांग्रेस (ओ) में ज्यादातर वही लोग थे जो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के किसी जमाने में करीबी हुआ करते थे और इंदिरा जिनके लिए बेटी समान थी।
वहीं लेकिन यह इंदिरा गांधी ही थी जिन्होंने इससे पहले के चुनाव में सिंडिकेट को मुंह की खाने पर मजबूर कर दिया था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली पार्टी का चुनाव चिन्ह गाय का दूध पीता बछड़ा था। यह पहली बार था जब कांग्रेस गाय-बछड़े के चुनाव चिन्ह पर लोकसभा चुनाव लड़ रही थी।
खबरों के मुताबिक सागरिका घोष अपनी किताब ‘इंदिरा- भारत की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री’ में लिखती हैं कि अपने प्रमुख सचिव पीएन हक्सर की सलाह पर इंदिरा गांधी ने 1971 में मध्यावधि चुनाव करवा डाले। वह बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स की जड़ों पर आघात और कांग्रेस बंटवारे की पृष्ठभूमि में लोकप्रिय नारे ‘गरीबी हटाओ’ के साथ चुनाव मैदान में उतरी थीं। जबकि विरोधियों का नारा था ‘इंदिरा हटाओ’।
इस तरह 18 मार्च 1971 के दिन इंदिरा गांधी को तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। दिसंबर 1971 में निर्णायक युद्घ के बाद भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान को ‘मुक्ति’ दिला दी। बांग्लादेश का जन्म हुआ। सागरिका घोष लिखती हैं, बांग्लादेश युद्ध के बाद तो इंदिरा गांधी की लोकप्रियता कुलांचें भरने लगीं।
1971 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ के सांसदों की तादाद 35 से घटकर 22 रह गई थी। जबकि भारत के चौथे लोकसभा चुनाव में जनसंघ तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। जनसंघ ने चुनाव में 35 सीटें जीती थीं। लेकिन इस चुनाव में जनसंघ को करारा झटका लगा था।
वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर लिखी अपनी किताब ‘ हार नहीं मानूंगा’ में लिखते हैं कि जब अप्पा घटाटे ने वाजपेयी से पूछा, ‘ संसद में इंदिरा जी क्या प्रतिक्रिया है?’ वाजपेयी हंस कर बोलो, ‘अभी तो हमारी तरफ बहुत प्यार से देखती हैं’।
1971 के आम चुनाव ने जनसंघ को लगभग साफ कर दिया था। लोकसभा चुनाव के बाद ही दिल्ली में नगर पालिका चुनाव होने थे और वाजपेयी ने अपनी शैली में भाषण दिया और जनसंघ ने म्युनिसिपल चुनाव जीत लिया। दरअसल, जनसंघ की हार के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी शैली में भाषण देते हुए दिल्ली की जनता से कहा- ‘ आपने इंदिरा गांधी को मौका दिया वह तो ठीक है लेकिन अब हमें सफाई के लिए झाड़ू लगाने का मौका तो दो।’ जनसंघ दिल्ली में चुनाव जीती और जनता ने झाड़ू लगाने का मौका दे दिया।