गीता से कलियुग में ऐसे दूर करें दुख-दरिद्रता


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एजेन्सी/आज के दौर में कई लोग दुखों, कष्टों, मानसिक तनाव, अशांति, असुरक्षा एवं सांसारिक इच्छाओं के पूरा न होने से बेचैन-परेशान हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि इन समस्याओं और दुखों से छुटकारा पाकर सफल जीवन कैसे बिताया जा सकता है? हर व्यक्ति इन समस्याओं और दुखों से छुटकारा पाने के लिए इनका हल ढूंढऩे का जीवन भर प्रयास करता है पर क्या उसे सफलता मिली है? 

अगर हम अपनी अन्तर्रात्मा से पूछें तो हमें उत्तर मिलेगा, नहीं। इन सभी कष्टों और समस्याओं का हल है श्रीमद् भगवत् गीता। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने न केवल समस्याओं का हल सुझाया है बल्कि जीवन जीने का सही तरीका भी बताया है। गीता सफल एवं सुखमय जीवन जीने के अलावा परमात्मा की प्राप्ति का रास्ता भी है। 

प्रारब्ध के अनुसार सुख-दुख

क्या आपने कभी गहराई से यह जानने की कोशिश की है कि ये दुख, कष्ट, अनेक प्रकार की समस्याएं, मानसिक तनाव एवं अशांति क्यों होती है? इनके आने का कारण क्या है? पिछले जन्मों में किए हुए पाप कर्मों का फल भुगताने के लिए ही दुख, कष्ट आते हैं और पुण्य कर्मों के फलस्वरूप सुख प्राप्त होते हैं। 

जितने पाप कर्म किए हैं उतने दुख भोगने ही पड़ेंगे। जितने पुण्य कर्म किए हैं उतना ही सुख आराम मिलेगा। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं (गीता अध्याय 16/23) जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, शास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह न तो सुख-शांति की और न परम गति को ही प्राप्त करता है। 

भगवान कहते हैं कि वे मूढ़ मनुष्य मुझे प्राप्त न करके जन्म-जन्मान्तर आसुरी योनियों में भटकते रहते हैं और उससे भी भयंकर नरक में चले जाते हैं। मनुष्य के द्वारा इस जन्म में किए गए कर्मों के अनुसार ही उसके भविष्य का अर्थात् अगले जन्म का निर्माण होता है। 

ईश्वर की शरणागति में सुख

पूर्वजन्म के पापों के फलस्वरूप मिले दुख एवं कष्ट कम भी हो सकते हैं और खत्म भी हो सकते हैं, बशर्तें इस जन्म में नए पाप कर्म न करने का संकल्प करें। निषेध कर्म न करें तथा भगवान के परायण हो जाएं अर्थात् भगवान की शरण में आकर उनकी आज्ञा का पालन करें। भगवान के नाम का जप, ध्यान, कीर्तन आदि करते रहें। 

भगवान कहते हैं कि मेरी शरण होने पर मेरी कृपा से तू सम्पूर्ण विघ्नों, बाधाओं, दुखों एवं शोक आदि से तर जाएगा और मेरी प्राप्ति भी हो जाएगी। अहंकार के कारण यदि तू मेरी बात नहीं मानेगा तो तेरा पतन हो जाएगा। भगवान के सम्मुख होने से, भगवान के परायण होने पर सारे पापों की जड़ ही कट जाती है क्योंकि भगवान से विमुखता ही पापों का खास कारण है। 

भगवान से विमुख होना पूरा पाप और दुर्गुण-दुराचारों में लिप्त होना आधा पाप हैं। ऐसे ही भगवान से सम्मुख होना पूरा पुण्य है और सदगुण-सदाचारों में लगना आधा पुण्य है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य भगवान के सर्वथा शरणागत हो जाता है तो उसके पापों, सन्तापों और दुखों आदि का अन्त हो जाता है। सही मायनों में सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देना ही ईश्वर को पाने का माध्यम है।

कामना सब पापों की जड़

दुखों, कष्टों एवं समस्याओं का वास्तविक कारण है हमारी कामना। यह कामना ही सम्पूर्ण पापों की जड़ हैं। कामनाओं वाले व्यक्ति को जागृत अवस्था में तो सुख मिलना दूर रहा, स्वप्न में भी सुख नहीं मिल सकता। जो चाहते हैं वह न हो और जो नहीं चाहते हैं वह हो जाए, इसी को दुख कहते हैं। मनुष्य को सदा के लिए महान सुखी बनाने के उद्देश्य से भगवान कामना को नित्य वैरी बतलाकर उससे बचने के लिए सावधान करते हैं। 

कामना के कारण मनुष्य को जो करना चाहिए वह तो करता नहीं और जो नहीं करना चाहिए वह कर बैठता है। कामना उत्पन्न होने पर उसकी प्राप्ति के लिए न्याय-अन्याय का विचार ही नहीं करता। कामना के बढऩे पर झूठ, कपट, धोखा, बेईमानी, चोरी-डकैती आदि पाप कर्मों को भी जुट जाता है। इस प्रकार कामना के कारण मनुष्य बड़े पतन की ओर चला जाता है। भयानक दुखों और कष्टों को भोगता हुआ अधम गति में अर्थात् नरक में चला जाता है। 

अब यह विचार आता है कि कामनाएं मिटे कैसे? कामनाओं का त्याग करना असंभव नहीं है बल्कि सभी कामनाओं की पूर्ति होना असंभव है। कामनाओं की पूर्ति की अपेक्षा कामनाओं का त्याग सुगम है। गलती यह होती है कि जो कार्य कर नहीं सकते उसके तो पीछे पड़ते हैं  पर जो कार्य कर सकते हैं उसे करते नहीं। निष्कामभावपूर्वक दीन-दुखी, अनाथ एवं आतुर प्राणियों का सेवा कार्य जो न्याययुक्त एवं हितकारी हो, जिसको पूरा करने का सामथ्र्य हममें हो, उसे पूरा करने से हमारी कामनाएं त्याग करने की भावना उत्पन्न हो जाती है। 

दूसरा कारण कामना के उत्पन्न होने पर तुरन्त भगवान को पुकारना चाहिए, जिससे कामना का त्याग संभव हो जाता है। शरीर निर्वाह मात्र की आवश्यक कामना है जिसके बिना जीवित रहना संभव न हो उसकी पूर्ति कर लेनी चाहिए। दीन-दुखियों एवं परहित में किया न्याययुक्त सेवा कार्य एवं परमात्मा प्राप्ति की इच्छा रखना कामना नहीं है। 

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